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________________ 194 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा 6. स्वेच्छा से उपवास करना, जैसे नक्षत्र या तिथि आदि की अपेक्षा के बिना ही स्वरुचि से कभी भी कर लेना अनाकार प्रत्याख्यान है। 7. प्रमाण सहित उपवास को परिमाणगत कहते हैं। जैसे बेला, तेला, चार उपवास, पाँच उपवास, सात दिन, पन्द्रह दिन, एक मास आदि काल के प्रमाण उपवास आदि करना परिमाणगत प्रत्याख्यान है। 8. जीवन पर्यन्त के लिए चार प्रकार के आहार आदि का त्याग करना अपरिशेष प्रत्याख्यान है। 9. मार्ग-विषयक प्रत्याख्यान अध्वानगत है। जैसे जंगल या नदी आदि से निकलने के प्रसंग में उपवास आदि करना अर्थात् इस वन से बाहर पहुँचने तक मेरे चतुर्विध आहार का त्याग है या इस नदी से पार होने तक चतुर्विध आहार का त्याग है ऐसा उपवास करना सो अध्वानगत प्रत्याख्यान है। 10. हेतु सहित उपवास सहेतुक हैं, यथा-उपसर्ग आदि के निमित्त से उपवास आदि करना सहेतुक नाम का प्रत्याख्यान है। भगवती आराधना की टीका करते हुए अपराजित सूरि ने योग के सम्बन्ध से मन-वचन-काय की दृष्टि से प्रत्याख्यान के तीन भेद किये हैं। निक्षेप दृष्टि से भी प्रत्याख्यान के नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र काल और भाव रूप से छह भेद मिलते हैं। 1 श्वे. सम्प्रदाय में भी प्रत्याख्यान के तीन और पाँच भेदों का भी उल्लेख मिलता है। 2 व्यवहार नय के विषयभूत अनेक भेद रूप प्रत्याख्यान के द्वारा यद्यपि श्रमण निजको पर पदार्थ के संकल्प रूप भोगों से बचाता है, तथापि निश्चयनय से देखा जावे तो जिसमें समस्त संकल्पों का अन्त होता है ऐसी स्वाश्रित परिणति रूप श्रद्धा,ज्ञान, चारित्र, होने पर "सर्व पदार्थ पर हैं" ऐसा ज्ञान ही यथार्थ में प्रत्याख्यान है। आत्मा में "त्याग ग्रहण शून्यत्व" शक्ति होने से इसने पर पदार्थ को आज तक ग्रहण ही नहीं किया, तो फिर उसके त्याग की चर्चा ही व्यर्थ है, और यह चर्चा मिथ्यात्व रूप, अतः कर्मबन्ध का कारण भी है। इस जीव ने अनादि काल से यह मान अवश्य रखा है कि "मैं पर को ग्रहण कर सकता हूँ, और करता हूँ। और इस पर- पदार्थ को ग्रहण करने रूप मान्यता का त्याग ही निश्चयनय से जैनधर्म में प्रत्याख्यान कहा है। अतः ज्ञान ही प्रत्याख्यान है। तथा यही प्रत्याख्यान आवश्यक के करने की विधि है। कायोत्सर्ग : बाहर में क्षेत्र-वास्तु आदि का और आभ्यन्तर में कषाय आदि का अथवा नियम अनियत काल के लिए शरीर के मोह का त्याग करना व्युत्सर्ग तप या व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त का अपर नाम कायोत्सर्ग है, जो दैवसिक, रात्रिक, चातुर्मासिक आदि दोषों के साधनार्थ विधिपूर्वक किया जाता है। शरीर पर से ममत्व बुद्धि छोडकर,
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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