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________________ षडावश्यक/प्रत्याख्यान 193 निश्चयनय की अपेक्षा प्रत्याख्यान का स्वरूप बतलाते हुए कहा कि-"भविष्यत् काल का शुभ व अशुभ कर्म जिस भाव में बँधता है, उस भाव से जो आत्मा निवृत्त होता है, वह आत्मा प्रत्याख्यान है। 1 अथवा समस्त जल्प को छोडकर और अनागत शुभ व अशुभ का निवारण करके जो आत्मा को ध्याता है, उसे प्रत्याख्यान कहते हैं। जो निजभाव को नहीं छोड़ता, किंचित भी परभाव को ग्रहण नहीं करता, सर्व को जानता देखता है, "वह मैं हूँ"-ऐसा ज्ञानी चिन्तन करता है। आचार्य अमितगति भी यही कहते हैं कि, जो महापुरुष समस्त कर्मजनित वासना से रहित आत्मा को देखने वाले हैं, उनके जो पापों के आने में कारणभूत भावों का त्याग है, उसे प्रत्याख्यान कहते हैं।83 व्यवहार प्रत्याख्यान का स्वरूप बतलाते हुए कहा कि "मुनि दिन में भोजन करके फिर योग्यकाल पर्यन्त अन्न, पान, खाद्य और लेह्य की रुचि छोडते हैं, यह व्यवहार प्रत्याख्यान है।84 भविष्यत् में दोष न होने देने के लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है।85 प्रत्याख्यान, संयम और महाव्रत एक अर्थ वाले हैं।86 महाव्रतों के विनाश व मलोत्पादन के कारण जिस प्रकार न होंगे वैसा करता हूँ, ऐसी मन से आलोचना करके चौरासी लाख व्रतों की शुद्धि के प्रतिग्रह का नाम प्रत्याख्यान है।87 आचार्य वट्टकेर ने नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव इन छहों में शुभ मन, वचन व काय से आगामी काल के लिए अयोग्य का त्याग करना प्रत्याख्यान कहा है।88 प्रत्याख्यान के भेद मूलाचारकार ने प्रत्याख्यान के दस भेद किये हैं।89 1. भविष्यतकाल में किए जाने वाले उपवास आदि पहले कर लेना, जैसे चतुर्दशी आदि में जो उपवास करना था उसको त्रयोदशी आदि में कर लेना अनागत प्रत्याख्यान है। 2. अतीतकाल में किए जाने वाले उपवास आदि को आगे करना अतिक्रान्त प्रत्याख्यान है। जैसे चतुर्दशी आदि में जो उपवास आदि करना है उसे प्रतिपदा आदि में करना। 3. शक्ति आदि की अपेक्षा से संकल्प सहित उपवास करना कोटिसहित प्रत्याख्यान है। जैसे कल प्रातः स्वाध्याय वेला के अनन्तर यदि शक्ति रहेगी तो उपवास आदि करूँगा, यदि शक्ति नहीं रही तो नहीं करूँगा, इस प्रकार से जो संकल्प करके प्रत्याख्यान होता है वह कोटिसहित है। 4. पाक्षिक आदि में अवश्य किए जाने वाले उपवास करना निखण्डित प्रत्याख्यान है। 5. भेद सहित उपवास करने को साकार प्रत्याख्यान कहते हैं। जैसे सर्वतोभद्र, कनकावली आदि व्रतों की विधि से उपवास करना, रोहिणी आदि नक्षत्रों के भेद से उपवास करना।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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