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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा 110. नग्नस्य वापि "कुचेलवतोऽप्युपचार नग्नस्य निरूपचरित नग्नस्य वा जिन काल्पिक
- स्येति सामान्यमेव सूत्रम् 111.नाऽस्य चेलं वस्त्रमस्तीत्यचेलः अल्पचेलः इत्यर्थः - आचारांग शीलांक टीका सू.
182 112.अचेलं चेलाभावो जिन कल्पिकादीनाम्, अन्येषां तु भिन्नं अल्पमूल्यं चेलमप्यचेलम्
उत्तराध्ययन टीका नेमीचन्द्र वृत्ति पं. 17 113. भगवान महावीर का अचेलकधर्म - पृ. 17, (ले.पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री) 114. पदानन्दि पंचविंशतिका 25/3 115. गृहस्थ योग्य प्रच्छादन विरहिते आत्मना वा संस्तरिते नान्येन - मूलाचार गा. 32 की
. आचार वृत्ति। 116.दुर्ध्यानार्थमवधकारणमहो निर्ग्रन्थता हानये, शय्या हेतु ऋणादि अपि प्रशमिना लज्जाकर
स्वीकृत। यत्त किं न गृहस्थयोग्यमंपरं स्वर्णादिकम् साम्प्रतम्, निन्येष्वपिचेत्तदस्तिनितरा दूरः
प्रविष्टः काल।। पम. पंच 1/43. 117. आदि पुराण ( ह.लि.प्र. अलीगंज जैन मन्दिर) पृ. 250 118. मूलाचार गा. 34 की आचारवृत्ति, पम. पंच 1/43अन. घ. 9/93 119. आवश्यक चूर्णि, पूर्वभाग पृ. 217, आचारांग चूर्णि पं. 10, पृ. 309 120. अन.घ. 9/94 121. प्रवचनसार गा. 220 की जयसेन टीका 122. यतेर्मूलगुणाश्चाष्टाविंशतिर्मूलकत्तरोः ।
नात्राप्यन्यतमेनोनानातिरिक्ताः कदाचन।। पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध 643 123. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग 3, पृ. 266 124.आचारसार श्लोक 5-9 का सारांश: आ. जयसेन के प्रवचनसार गा. 255 की
टीका (पृ. 435 में यथायोग्यं सच्छूद्राद्यपि कहकर दीक्षा का अधिकारी कहा है।) 125. पदापुराण पर्व 78, श्लोक 78-81 126. प्रवचनसार गा. 202 की अमृतचन्द्राचार्य टीका 127. प्रवचनसार गा. 201 128. वही, अमृतचन्द्राचार्य टीका "यथानुभूतस्य तत्प्रतिपत्तिवर्त्मनः प्रणेतारो क्यमिमे
तिष्ठाम इति। 129. तत्प्रतिप्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता।
निश्चितं स भवेभव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।।पदा.पं विं. 4/23 130. प्रवचनसार गा. 201 जयसेनाचार्य टीका-"अथासन्नजीवांश्चारित्रे प्रेरयति" 131.पदापुराण भाषा-भाषाकार-दौलतरामजी-पृष्ठ 538 (सस्तीग्रन्थमाला, दिल्ली,
1974)