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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
52. वही, आचारसार श्लोक 20 53. शरीरं धर्म संयुक्तं रक्षितव्यं प्रयत्नतः ।
इत्याप्त वाचस्त्वदेहस्वत्याज्य एहेति तण्डलुः ।। 140।। अनगार धर्मामृत अध्याय 4 54. वही पृ. 302 55. क्षेत्रं धान्यं धनं वास्तु कुप्यं शयनमासनम्।
द्वि पदाः पशवो भाण्डं बाह्या दश परिग्रहाः ।। 433 ।। श्लोक - उपासकाध्ययन 56. धनं धान्यं स्वर्ण रुप्य कुप्यानि क्षेत्र वास्तुनी।
द्विपाच्चतुष्पाच्चेति स्युर्नव बाह्याः परिग्रहाः ।। योगशास्त्र 2/115 की वृत्ति 57. पूर्व दीक्षाकाले शुक्रबुद्धैक स्वभावं निजात्मानमेव परिग्रहंकृत्वा, शेषं समस्तं
‘बाह्याभ्यन्तर परिग्रहं वर्दितवन्तस्त्यक्तवन्तः । एवं ज्ञात्वा शेष तपोधनैरपि निज परमात्म परिग्रहं स्वीकारं कृत्वा शेषः सर्वेऽपि परिग्रहो मनोवचनकायैः कृतकारिता
नुमतैश्च त्यजनीय इति। प्रवचनसार पृ. 422, पं. 8-10 58. नियमसार गा. 60 59. प्रवचनसार गा. 420, पं. 15 60. प्रवचनसार पृ. 421, (भावनगर प्रकाशन) 61. अनगार धर्मामृत 4/50 62. भगवती आराधना गा. 1186 63. अनगारधर्मामृत श्लोक 153 64. वही श्लोक 154; मूलाचार गा. 333 की आचार वृत्ति 65. वही श्लोक 155 66. वही 156 67. वही 159 68. वही 160 69. वही 161 70. वही 162 71. मूलाचार गा. 107 अन. धर्म 4/1637 आचारसार श्लोक 21 72. मूलाचार गा. 11; नियमसार गा. 61आचारसार श्लोक 225 अन. धर्मा. 4/164 73. भगवती आराधना गा. 72 74. भगवती आराधना गा. 1199; सिद्धसेन कृत तत्वार्थ वृत्ति टीका भा. 2, पृ. 187 75. दश.-अ. 5 उ. 1 सूत्र 3-4 76. मूलाचार गा. 12: नियमसार गा. 625 आचार श्लोक 23 77. अनगार धर्मामृत 4/165-66 श्लोक 78. मूलाचार गा. 14; धर्मा. अन. 4/1683 आचारसार श्लोक 24 79. मूलाचार गा. 14; अन. धर्मा. 4/168; आचारसार श्लोक 25 नियमसार गा. 64 80. भग. आरा. .गा, 1206