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________________ मूलगुण 117 8- एषणा समिति : भोजन के अन्तरायों से, अंगार आदि दोषों से, भोज्य वस्तु सम्बन्धी शंका आदि दोषों से तथा उद्गम और उत्पादन आदि दोषों से रहित, वीर चर्या के द्वारा प्राप्त पूय, रुधिर आदि दोषों से तथा अधःकर्म नामक महान् हिंसा दोषों से रहित, भाव से शुद्ध, अपना और पर का उपकार करने वाले शरीर की स्थिति को बनाये रखने में समर्थ विधिपूर्वक भक्ति के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, सत्शूद्र के द्वारा दिया गया भोजन समय पर शीत उष्ण आदि में समान भाव से उचित प्रमाण में आहार लेने वाला तपस्वी एषणा समिति का पालक होता है।78 नियमसार गा. 62 की टीका में पदाप्रभमलधारिदेव ने इस समिति को और स्पष्ट करते हुए कहा कि "प्रतिग्रह" अर्थात् "आहार जल शुद्ध है, तिष्ठ! तिष्ठ! तिष्ठ!" ऐसा कहकर आहार ग्रहण की प्रार्थना करने पर एवं उच्च स्थान, पाद प्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम, योगशुद्धि ( मन वचन काया की शुद्धि) और भिक्षाशुद्धि - इन नवविधि से आदर करके, श्रद्धा, शक्ति, अलुब्धता, भक्ति, ज्ञान, दया - इन (दाता) के सात गुणों सहित शुद्ध योग्य आचार वाले उपासक द्वारा दिया गया (नव कोटि से शुद्ध, प्रशस्त और प्रासुक) भोजन जो परम तपोधन लेते हैं, उसे एषणा समिति कहते हैं। 9. आदान निक्षेपण समिति : आदान-निक्षेपण समिति का पालक साधु स्थिर चित्त होकर प्रथम अपनी आँखों से अच्छी तरह देखकर फिर पिच्छि से साफ करके ही ज्ञान के उपकरण पुस्तकादि, संयम का उपकरण पिच्छि, शौच का उपकरण कमण्डलु आदि को ग्रहण करता एवं रखता है; रखन के पश्चात् यदि कितना ही काल व्यतीत हो गया हो, तो भी सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति की संभावना से पुनः उस रखी हुयी पुस्तकादि का सावधानी से निरीक्षण करता है। 9 बिना देखे, बिना प्रमार्जन किये पुस्तकादि का ग्रहण करना या रखना सहसा नामक पहला दोष है। बिना देख- प्रमार्जन करके पुस्तकादि का ग्रहण या रखना, अनाभोगित' नाम का दूसरा दोष है। देख करके भी सम्यक् रीति से प्रमार्जन न करके ग्रहण करना या रखना 'दुःप्रमृष्ट' नामक तीसरा दोष है। पहले देखकर प्रमार्जन किया किन्तु कितना ही काल व्यतीत हो जाने पर पुनः यह देखे बिना ही कि शुद्ध या अशुद्ध ग्रहण या निक्षेप करना अप्रत्यवेक्षण नामक चौथा दोष है।80 उपर्युक्त चारों दोषों का परिहार करने वाले के आदाननिक्षेपण समिति होती है। 10. उत्सर्ग समिति : __ शरीर के मलत्याग का नाम उत्सर्ग है। 'मूलाचार' में इस पाँचवीं समिति को प्रतिष्ठापना समिति से अभिहित किया गया है। यह समिति, दो- इन्द्रिय आदि जीवों तथा हरे तृण आदि से रहित, साँप की बांबी आदि भय के कारणों से रहित, वन की, श्मशान
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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