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________________ 116 जैन श्रमण : स्वरुप और समीक्षा आचार्य शिवार्य ने कहा है कि मार्गशुद्धि, उद्योतशुद्धि, उपयोगशुद्धि, आलम्बनशुद्धि इन चार शुद्धियों के साथ गमन करने वाले मुनि के सूत्रानुसार ईर्या समिति आगम में कही है। मार्ग में चींटी आदि सजीवों का आधिक्य न हो; बीज, अंकुर, तृण, हरित वृक्ष, कीचड़ आदि का न होना मार्गशुद्धि है। चन्द्रमा, नक्षत्र आदि का प्रकाश अस्पष्ट होता है, और दीपक आदि का प्रकाश अव्यापी होता है। अतः सूर्य का स्पष्ट और व्यापक प्रकाश होना उद्योतशुद्धि है। पैर के रखने के स्थान पर जीवों की रक्षा की भावना होना उपयोगशुद्धि है। गुरु, तीर्थ, तथा यतिओं की वन्दना आदि के लिए या शास्त्रों के अपूर्व अर्थ ग्रहण करने के लिए या संयतों के योग्य क्षेत्र की खोज के लिए या वैयावृत्य करने के लिए या अनियत आवास के कारण स्वास्थ्य लाभ के लिए या श्रम पर विजय प्राप्त करने के लिए या अनेक देशों की भाषा सीखने के लिए अथवा शिष्यों के प्रतिबोध के लिये गमन करना आलम्बनशुद्धि है। न बहुत जल्दी और न बहुत धीरे चलना, आगे चार हाथ जमीन देखकर चलना, पैर दूर-दूर न रखना, भय और आश्चर्य को त्यागकर चलना, विलासपूर्ण गति से न चलना, कूदकर न चलना, भागकर न चलना, दोनों हाथ नीचे लटकाकर चलना, निर्विकार, चपलतारहित, ऊपर तथा इधर-उधर देखकर न चलना, तस्तृण (हरे पत्ते) से एक हाथ दूर रहकर चलना, पशु-पक्षी एवं मृगों को भयभीत न करते हुए चलना, विपरीत योनि में जाने से जीवों को उत्पन्न हुयी बाधा को दूर करने के लिए निरन्तर पिच्छि से शरीर का परिमार्जन करते हुए चलना, सामने से आते हुए मनुष्यों से संघट्टन न करते हुए चलना, दुष्ट गाय, बैल, कुत्ता आदि से बचते हुए चलना, मार्ग में गिरे हुए भूसा, तुष, भस्म, गीला गोबर, तृणों के ढेर, जल, पत्थर, लकड़ी का टुकड़ा आदि से बचते हुए चलना, चोरी और कलह से दूर रहना, इस प्रकार से गमन करने वाले यति के ईर्या समिति होती है। दशवैकालिक में कहा है कि "आगे युग प्रमाण भूमि को देखता हुआ और बीज, हरियाली, प्राणी, जल तथा सजीव मिट्टी को टालता हुआ चले। दूसरे मार्ग के होते हुए गडढे ऊबड़-खाबड़, भू-भाग, टूंठ और सजल मार्ग से न जावे। इस प्रकार श्रमण ईर्या समिति का पालन करते हैं। 7- भाषा समिति : चुगली, हंसी, कठोरता, परनिन्दा, अपनी प्रशंसा और विकथा आदि को छोड़कर अपने और पर के लिए हितरुप वचन बोलना भाषा समिति है। अनगार धर्मामृत में अन्य प्रकार से बतलाते हुए कहा कि कर्कशा, परूषा, कटुंबी, निष्ठुरा, परकोपिनी, छेदंकरा , मध्यकृशा, अतिमानिनी, अनयंकरा, और भूतहिंसाकरी , इन दस प्रकार की दुर्भाषा को छोडकर हित, मित, और असन्दिग्ध वचन बोलने वाला साधु भाषा समिति का पालक होता है।77
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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