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________________ 118 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा की आग से जले हुए या हल के द्वारा अनेक बार खोदे गये, अथवा ऊसर भूमि में दिन के समय मल, मूत्र, कफ, नाक, बाल, वमन आदि का त्याग करने वाले मुनि के पलती है। रात्रि के समय यदि मल-मूत्र की बाधा हो तो दिन में प्रज्ञाश्रमण मुनि के द्वारा अच्छी तरह देखे गये तीन स्थानों में से किसी एक शुद्धतम स्थान में उल्टे हाथ से अच्छी तरह देखकर मूत्रादि का त्याग करना उत्सर्ग समिति है। रात्रि के सम्बन्ध में लिखा है - यदि मलत्याग शीघ्र हो जाए, तो मुनि को गुरु के द्वारा प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए, क्योंकि उस दोष में उसका वश नहीं था।81 __ मूलाचार' में इस समिति का स्वरूप बतलाते हुए कहा कि एकान्त, जीव जन्तु रहित, दूरस्थित, मर्यादित, विस्तीर्ण और विरोध रहित स्थान में मल-मूत्रादि का त्याग करना प्रतिष्ठापना समिति है।82 इसकी आचार वृत्ति टीका में स्पष्ट करते हुए कहा कि "जहाँ पर असंयत जनों का गमनागमन नहीं है, ऐसे विजनस्थान को एकान्त कहते हैं। हरितकाय और त्रसकाय आदि से रहित जले हुए अथवा जले के समान ऐसे स्थण्डिल-खुले मैदान को उचित कहते हैं, ऐसे स्थान पर ही मल-मूत्रादि का त्याग करना चाहिए। उपर्युक्त विवेचन के अनुसार आधुनिक काल में प्रचलित फ्लेश आदि में मल मूत्रादि का त्याग श्रमण नहीं कर सकते हैं, क्योंकि ऐसे स्थान हिंसा के स्थान हैं, यदि ऐसे स्थान पर श्रमण मल मूत्रादि क्षेपण करता है तो वह जैन श्रमण नहीं है। अतः निष्कर्ष रुप में एकान्त, अचित्त, दूर गूढ, विशाल और विरोधरहित प्रदेशों में सावधानीपूर्वक जो मल आदि का त्याग करता है वही मल-मूत्र विसर्जन के रूप में प्रतिष्ठापना समिति है। पंच इन्द्रिय जय : ___ श्रमण के लिए पंच इन्द्रिय- जयी बतलाया है, क्योंकि पंचेन्द्रिय जन्य सुख क्षणिक होने से विनाशक है और अतीन्द्रिय सुख ही चिर स्थायी है। अतः आचार्य योगीन्दु देव ने उसी के ग्रहण की प्रेरणा करते हुए कहा है कि -ये पंचेन्द्रिय विषय क्षणभंगुर हैं, बारम्बार दुर्गति के दुःख देने वाले हैं। अतः विषयों का सेवन अपने कंधे पर कुल्हाड़ी का मारना जैसा है, ऐसा व्याख्यान जानकर विषयसुख को छोड़, वीतराग परमात्म सुख में ठहरकर निरन्तर शुद्धोपयोग की भावना करनी चाहिए।84 ऐसी शुद्धोपयोगी होने की भावना के लिए जो विद्यमान विषयों को छोड़ता है, उसकी प्रशंसा करते हुए पुनः योगीन्दु देव कहते हैं-जो कोई ज्ञानी विद्यमान विषय को छोड़ देता है, उसकी मैं पूजा करता हूँ जिसका सिर गंजा है वह तो दैवादेव मुंडा हुआ है।85 आचार्य योगीन्दु देव का यह कथन लौकिक पद्धति में व्यवहार नय की अपेक्षा से किया है। परन्तु यथार्थतः जैनधर्म में चक्रवर्ती पद को त्यागकर बना श्रमण एवं एक गंजा पुरुष की तरह मुंडा हुआ अर्थात् जिसके पास कुछ भी नहीं था ऐसे पुरुष के द्वारा श्रामण्यावस्था
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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