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________________ 109 मूलगुण जड़ है। "यह मेरा है" ऐसा संकल्प होने पर ही उसकी रक्षा का भाव आता है । उसमें हिंसा अवश्य होती है। परिग्रह की रक्षा के लिये व उसके उपार्जन के लिए झूठ बोलता है, चोरी भी करता है । अतः परिग्रह सब अनर्थों की जड़ है। और इसको तीन प्रकार से कहा गया है ( 1 ) जीव से सम्बन्धित, ( 2 ) जीव से असम्बन्धित ( 3 ) और जीव से उत्पन्न हुए, ये तीन प्रकार के परिग्रह हैं। 51 इनका शक्ति से त्याग करना चाहिए, और इतर परिग्रह अर्थात् शरीर, संयम उपकरण पिच्छि- कमण्डलु आदि ज्ञानोपकरण पुस्तक आदि में निर्मम होना चाहिए, 52 क्योंकि ये अन्य परिग्रहों की तरह नहीं छोड़े जा सकते हैं। शरीर की स्थिति ऐसी है कि, निर्मम होने पर भी यह साथ रहता है। यद्यपि "जिस शरीर में धर्म के साधक जीव का निवास है उस शरीर की रक्षा बड़े आदर के साथ करना चाहिए। इस प्रकार की शिक्षा जिनागम का ऊपरी छिलका है, और "देह त्यागने ही योग्य है यह शिक्षा जिनागम का मूल है । " 53 परन्तु इसका त्याग नाश करके नहीं किया जा सकता है - ऐसा करने पर तो "आत्महनन" का पाप लगता है । पिच्छि कमण्डलु संयम के साधन हैं, अतः नजदीक होते हुए भी इनसे निर्मम रहा जाता है। हाँ, यदि भ्रमण पिच्छि का उपयोग तकिया, आदि भोग के रूप में करता है, या मन्त्र-तन्त्र, गण्डा, तावीज या आशीर्वाद के रूप में भी करता है, तो वह श्रामण्य से च्युत हो श्रमणाभास है। इसी प्रकार पुस्तकादि के होते हुए भी उनसे निर्मम ही रहता है I श्रमण अन्तरंग एवं बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह का त्यागी होता है। जैसे बाहर में तुष से वेष्टित चावल का छिलका दूर हुए बिना अन्दर से शुद्ध नहीं हो सकता, वैसे ही बाह्य परिग्रह में आसक्त हुआ जीव अभ्यन्तर कर्ममल को छोडने असमर्थ होने से अन्तःशुद्ध नहीं हो सकता54 । किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि केवल बाह्य परिग्रह ही छोडने योग्य है, या बाह्य परिग्रह के छोडने से अन्तरंग परिग्रह से छुटकारा मिल जाता है। बाह्य परिग्रह की तरह अन्तरंग परिग्रह भी छोडना चाहिए तथा उसके लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए । बाह्य परिग्रह छोड़ देने पर भी यदि शरीर के प्रति भी ममत्व भाव बना रहा, तो शरीर के नग्न रहने पर भी परिग्रह से छुटकारा नहीं हो सकता है 1 आभ्यन्तर परिग्रह निम्न हैं मिथ्यात्व - वस्तु के यथार्थ स्वरूप का अश्रद्धान, स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद (स्त्रीवेद - नो कषाय के उदय से पुरुष में, पुरुषवेद- कषाय के उदय से स्त्री में और नपुंसक वेद- नोकषाय के उदय से दोनों में रमण की अभिलाषा) हास्य, भय, जुगुप्सा, रति, अरति, शोक तथा चार कषाय ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं एवं खेत, गृह, सुवर्णादि, धान्य गेहूँ आदि, कुप्य वस्त्र आदि भाण्ड, दास-दासी, हाथी आदि चौपाये, शय्या - आसन ये दस बाह्य परिग्रह हैं। सोमदेव के उपासकाध्ययन में यान को नहीं गिनाया है और शय्या
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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