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________________ 108 जैन श्रमण : स्वरुप और समीक्षा निमित्त से होने वाला असंयम उस वस्तु के त्याग से ही सम्भव है।45 उत्तराध्ययन में भी समाधि के बाधक ऐसे ही तत्वों को छोड़ने के लिए कहा गया है।46 5. परिग्रह त्याग महाव्रत : परिग्रह त्याग महाव्रत का दूसरा नाम आकिंचन्य व्रत भी है, इसका अर्थ होता है निर्ममत्व। अतः ममत्व का या मूर्छा का त्याग आकिंचन्यव्रत है। वस्तुतः मूर्छा का नाम ही परिग्रह है।47 यही तथ्य पुरुषार्थसिद्धयुपाय में भी देखने को मिलता है। वहाँ कहा है या मूछानामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहोऽयमिति । मोहोदयादुदीर्णा मूर्छा तु ममत्व परिणामः ।।48 अर्थात् "जो यह मूर्छा है उसे ही परिग्रह जानना चाहिए। मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले ममत्व परिणाम को मूर्छा कहते हैं। चारित्र मोहनीय के भेद लोभ के उदय में ही परिग्रह संज्ञा होती है। इसी बात को गोम्मटसार ग्रन्थ में भी कहा है कि "उपकरण के देखने से, उसके चिन्तन से, मूर्छा भाव होने से और लोभ कर्म की उदीरणा होने पर परिग्रह की संज्ञा होती है।49 पूज्यपाद ने "मूर्छा परिग्रहः" की टीका में, बाह्य गाय, भैस मणि-मुक्ता आदि चेतन-अचेतन वस्तुओं के और राग आदि उपाधियों के संरक्षण, अर्जन के संस्कार रूप व्यापार को मूर्छा कहा है। इस पर से यह शंका की गयी कि यदि मूर्छा का नाम परिग्रह है तब तो बाह्य वस्तु परिग्रह नहीं कही जाएगी। क्योंकि मूर्छा से तो आभ्यन्तर का ही ग्रहण होता है। इसके उत्तर में कहा है-"उक्त कथन सत्य है, क्योंकि प्रधान होने से आभ्यन्तर को ही परिग्रह कहा है। बाह्य में कुछ भी पास न होने पर भी "मेरा यह है" इस प्रकार संकल्प करने वाला परिग्रही कहा है" इस पर पुनः शंका होती है कि फिर तो बाह्य परिग्रह नहीं ही रहा, प्रत्युत्तर में कहा कि बाह्य परिग्रह हैं क्योंकि मूर्छा का कारण है। पुनः शंका कि यदि "यह मेरा है" इस प्रकार का संकल्प परिग्रह है तो सम्यग्ज्ञान आदि भी परिग्रह कहलायेंगे क्योंकि जैसे राग आदि परिणाम में ममत्व परिणाम परिग्रह कहा जाता है वैसे ही सम्यग्ज्ञानादिक में भी ममत्वभाव होता है। प्रत्युत्तर में कहा कि जहाँ प्रमत्तभाव का योग है वहीं मूर्छा है। तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र से युक्त व्यक्ति अप्रमत्त होता है, उसके मोह का अभाव होने से मूर्छा नहीं है, अतः वह अपरिग्रही है। दूसरी बात यह है कि ज्ञान आदि तो आत्मा का स्वभाव है उसे छोड़ा नहीं जा सकता, अतः वह परिग्रह में सम्मिलित नहीं है। किन्तु राग आदि तो कर्म के उदय से होते हैं, वे आत्मा के स्वभाव नहीं है, अतः त्याज्य हैं। उनमें "यह मेरे है," ऐसा संकल्प करना परिग्रह है। यह संकल्प सब दोषों की
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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