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________________ 110 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा तथा आसन को अलग-अलग गिनकर दस संख्या की पूर्ति की है। __ श्वेताम्बर साहित्य में सिद्धसेन गणि की तात्पर्य टीका में (7/12) अन्तरंग परिग्रह की संख्या तो चौदह बतलायी है, किन्तु बाह्य परिग्रह की संख्या नहीं बतलायी। उनमें से अभ्यन्तर परिग्रह के चौदह भेद हैं-राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यादर्शन, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और वेद । बाह्य परिग्रह वास्तु, क्षेत्र, धन, धान्य, शय्या, आसन, यान, कुप्य, द्विपद, त्रिपद, चतुष्पद और भाण्ड हैं। आभ्यन्तर परिग्रह में वेद को एक गिना है और राग-द्वेष को मिलाकर चौदह संख्या पूर्ण की है। किन्तु बाह्य परिग्रह गिनने से 12 होते हैं। इनमें त्रिपद नवीन है जो अन्यत्र नहीं है। वैसे इस परम्परा में 9 बाह्य परिग्रह गिनाये है। यथा- धर्म संग्रह की टीका में कहा है-धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु रूप्य, सुवर्ण, कुप्प, द्विपद, चतुष्पद ये बाह्य परिग्रह हैं। हेमचन्द्र ने भी 9 बाह्य परिग्रह गिनाये हैं। उपर्युक्त अन्तरंग एवं बहिरंग के भेद से 24 प्रकार के परिग्रह का त्याग श्रमण को होता है। क्योंकि वह श्रमण दीक्षाकाल में शुद्ध- बुद्ध एक स्वभाव रूप निज आत्मा का ही ग्रहण करने की प्रतिज्ञा एवं उसका ग्रहण कर चुका है। अपनी आत्मा के अलावा शेष सभी 24 परिग्रह का त्याग वह मन-वचन-काय एवं कृत-कारित-अनुमोदना से पूर्व में ही कर चुका है। इन परिग्रहों का त्याग होने से संसार भ्रमण का कारणभूत राग द्वयादि का अभाव हो जाता है, और राग द्वेषादि का अभाव होने से संसरण से मुक्त होने का पथ प्रशस्त हो जाता है।58 जैन दर्शन मूलतः आत्म प्रवृत्ति प्रधान है बाह्य निवृत्ति की मुख्यता नहीं है । इसीलिए श्रमण का मूलगुण "सामायिक" भी प्रवृत्ति परक है। जब श्रमण की सामायिक अवस्था से निवृत्ति होती है तब उसकी परद्रव्यों के प्रति किस प्रकार की प्रवृत्ति का भाव रहता है यह पंच महाव्रतों का प्राण है। पाँच पापों का सम्बन्ध पर द्रव्यों के प्रति ममत्व एवं स्थिरता से है, एवं पापों की भी शुरुआत सर्वप्रथम हिंसा से ही होती है। इस संसार में सूक्ष्म जन्तुओं का घात तो तीर्थंकर के शरीर को छोड़कर सभी के होता है। परन्तु हिंसा का सम्बन्ध उससे नहीं है। क्योंकि जयसेनाचार्य ने प्रवचनसार की टीका करते हुए कहा कि- "सूक्ष्मजन्तुघातेऽपि यावतांशने स्वस्थभावचलनरुप रागादिपरिणतिलक्षण भावहिंसा तावतांशेन बन्धो भवति, न च पादसंघट्टनमात्रेण" तपोधनस्य रागादिपरिणतिलक्षणभाव हिंसा नास्ति । ततः कारणाद्वन्धोऽपि नास्तीति।"59 अर्थात् सूक्ष्म जन्तुओं के घात होने पर भी जितने समय तक स्वस्थ भाव चलन रूप रागादि परिणति रहेगी अर्थात् स्व आत्मा, स्थ-ठहरना, अपनी आत्मा में ठहरने रूप भाव से या कहें कि सामायिक के भाव से चलन रूपया डिगने पर उत्पन्न हुयी रागादिक प्रवृत्ति ही भाव हिंसा है। यहाँ पर "स्वस्थ भाव
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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