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Adaanamaanakam adhyayana dravyato vidyamaane'pi samavasaranadike bhaavato'naasvaadako'sau, tadgatagaarbhaabhavaaat, satyapyupabhoge 'yatah' prayatah satsanyamavaaneevaasaavekantena sanyamaparaayanatvaat, kuto? yata indriyanoi'ndriyaabhyaam daantah, etadgunopi kathamityaahadriddhah sanyame, aaratam-uparatamapagatam maithunnam yasya sa aaratamaithunaah-apagatechchhaamadanakaamah, ichchhaamadanakaamaabaavaacca sanyame dridho'sau bhavati, aayataacaaritratvaacca daanto'sau bhavati, i'ndriyanoindriyadamaacca prayatah prayatnavattvaacca devaadipuujanaanaasvaadakah, tadanaasvaadanaacca satyapi dravyatah paribhoge satsanyamavaaneevaasaaviti.
Translation:
Although he is engaged in the study of the Adaanamaanaka (a Jain text) and is present in the samavasharan (Jain assembly) and other such activities in terms of substance (dravya), he is devoid of relishing or enjoying them in terms of the state of being (bhava). This is because he is free from any attachment or desire towards them. Even though he engages in their enjoyment, he is ever vigilant and firmly established in true restraint (satsanyama). How is this so? Because he has conquered his senses and mind. This quality of his is firm in restraint. He has abandoned and renounced sexual intercourse (mithuna), and is free from the desire for sensual pleasures. Due to the absence of such desires, he is steadfast in restraint. He possesses extensive and flawless conduct (aayataacaaritratva), and is therefore controlled (daanta) in his senses and mind. Because of this control over the senses and his diligent efforts, he does not relish the worship and honor offered by the devas (celestial beings) and others. Due to this lack of relishing, even though he engages in the enjoyment of substances (dravya), he remains firmly established in true restraint.
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आदाननामकं अध्ययन द्रव्यतो विद्यमानेऽपि समवसरणादिके भावतोऽनास्वादकोऽसौ, तद्गतगााभावात्, सत्यप्युपभोगे 'यतः' प्रयत: सत्संयमवानेवासावेकान्तेन संयमपरायणत्वात्, कुतो ? यत इंद्रियनोइन्द्रियाभ्यां दान्तः, एतद्गुणोऽपि कथमित्याहदृढ़ः संयमे, आरतम्-उपरतमपगतं मैथुनं यस्य स आरतमैथुन:-अपगतेच्छामदनकामः, इच्छामदनकामाभावाच्च संयमे दृढोऽसौ भवति, आयतचारित्रत्वाच्च दान्तोऽसौ भवति, इन्द्रियनोइन्द्रियदमाच्च प्रयतः प्रयत्नवत्त्वाच्च देवादिपूजनानास्वादकः, तदनास्वादनाच्च सत्यपि द्रव्यतः परिभोगे सत्संयमवानेवासाविति ॥११॥ .
टीकार्थ – सूत्रकार अनुशासन-उपदेश या शिक्षा के प्रकार, भेद बताने हेतु कहते हैं-जिसके द्वारा प्राणी सन्मार्ग में लाये जाते हैं । सत-अच्छे, असत्-बुरे के भेद का जिससे बोध कराया जाता है, उसे अनुशासन कर जाता है । वह धर्म देशना है । उस द्वारा प्राणी सन्मार्ग में अवतीर्ण किये जाते हैं-लाये जाते हैं । किंतु वह सन्मार्गावतरण-उत्तम मार्ग में लाये जाने का उपक्रम प्राणियों के भव्य-अभव्य आदि भेदों के अनुसार अनेक प्रकार का होता है । जैसे एक ही जल भिन्न भिन्न पृथ्वी के भागों व खण्डों में गिरता है तो भिन्न भिन्न रूप में वह फलान्वित होता है । यद्यपि अभव्य-मोक्षगमन की योग्यता से विहीन प्राणियों में सर्वज्ञ का अनुशासन सम्यक् परिणत नहीं होता-उचित फलनहीं लाता, तो भी सर्व उपाय वेत्ता सर्वज्ञ का इसमें दोष या उनकी कोई कमी नही है क्योंकि उन अभव्य प्राणियों के स्वभाव का परिगमन ही ऐसा है जिससे सर्वज्ञ का अमृतभूतएकान्त हितप्रद समस्त द्वन्द्वों को नाश करने वाला वचन भी उसमें यथावत परिणाम नहीं लाता, प्रभाव नहीं करता । अतएव कहा है-हे लोक बान्धव ! सर्व कल्याणकारिन् । यद्यपि सद्धणें बीजवपन में-बीज बोने में आपका अनघ-दोष रहित अद्भुत कौशल-नैपुण्य है, तो भी आपका प्रयास कहीं जो असफल रहा, इसमें कोई अचरज नहीं क्योंकि पक्षियों में उल्लू आदि तामस कोटि के जीवों को सूर्य की किरमें मधुकरी-भ्रमरी के पैरों की तरह काली प्रतीत होती है । अनुशासक-धर्मोपदेशक पुरुष कैसे हैं ? यह सूत्रकार प्रकट करते हैं-द्रव्य को वसु कहा जाता है, जो पुरुष मोक्ष की ओर गतिशील है, संयम ही उसके लिये द्रव्य-धन है । जिसके पास वह-वसु विद्यमान होता है, उसे वसुमान कहा जाता है । देव आदि द्वारा अशोक वृक्ष आदि के प्रस्तुतीकरण के रूप में जो पूजन सत्कार किया जाता है, उसका जो आस्वादन-उपभोग या सेवन करता है वह पूजना स्वादकसत्कारोपभोगी कहा जाता है । प्रश्न उपस्थित होता है कि देव आदि द्वारा आधाकर्म के रूप में उपस्थापित समवसरण आदि का उपभोग-सेवन करने के कारण वे उत्तम संयम युक्त कैसे हो सकते हैं ? इस आशंका का समाधान करते हुए कहा जाता है-वे उसमें अनाशय-अभिप्राय या अभिरूचि रहित है । यद्यपि द्रव्य रूप में समवसरण आदि का उपभोग-सेवन करने के कारण वे उत्तम संयम युक्त कैसे हो सकते हैं । इस आशंका का समाधान करते हुए कहा जाता है, वे उसमें अनाशय-अभिप्राय या अभिरूचि रहित है । यद्यपि द्रव्य रूप में समवसरण आदि में विद्यमान होते हुए भी वे भाव रूप में अनास्वादक है-आस्वाद-रूचि या आसक्ति रहित है। उसमें उनका गार्थ्य-मर्छा नहीं है। उनका उपभोग सेवन करते हए भी वे प्रयत है-उत्तम संयम में तत्पर है। एकांत रूप से संयम परायण है। यह किस प्रकार है ? इसका समाधान करते हए सत्रकार कहते हैंभगवान इन्द्रियों एवं मन का दमन कर चुके हैं-जीत चुके हैं । ये गुण उसमें कैसे घटित हैं ? इसका समाधान करते हुए कहते हैं-वे संयम में दृढ़ है । मैथुन-अब्रह्मचर्य को अपगत-वर्जित किये हुए हैं, काम वासना से वे अतीत हैं । वैसा होने से वे संयम में दृढ़ है । वे आयत-विशाल परिपूर्ण या निर्दोष चारित्रयुक्त हैं, दांत हैं, इन्द्रिय और मन के विजेता हैं । इस कारण वे देवादि द्वारा किये गये सम्मान सत्कार के उपभोक्ता नहीं है क्योंकि उनमें आस्वादन या अभिरूचि का अभाव है । द्रव्य की दृष्टि से परिभोग या सेवन होने के बावजूद वे सत्संयमवान हैं।
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