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The wise man, knowing the truth, should turn away from sin. Violence gives rise to suffering, and it is the cause of enmity, which is a great fear. **Commentary:** The wise man is one whose intellect is beautiful and praiseworthy. The wise man, desiring liberation, should engage in the practices prescribed by the scriptures and abandon those that are forbidden. The wise man should turn away from sin, such as violence, falsehood, etc., because the destruction of the cause leads to the destruction of the effect. Therefore, the wise man who desires the destruction of all karma should first block the doors of the inflow. Violence, which is the taking of life, gives rise to evil karma, which leads to suffering in hell and other places of torment. It also creates enmity, which binds one for hundreds of thousands of years. Therefore, it is a great fear. Knowing this, the wise man should turn away from sin. There is also a variant reading: "He should turn away from the world of liberation." This means that just as a warrior who has returned from battle is no longer engaged in war and does not harm anyone, so too should a virtuous person, free from sinful actions, remain on the path of restraint.
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________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् छाया - संबुध्यमानस्तु नरो मतिमान् पापात्वात्मानं निवर्तयेत् । हिंसा प्रसूतानि दुःखानि मत्त्वा वैरानुबन्धीनि महाभयानि ॥ अनुवाद - मतिमान-प्रज्ञाशील, धर्मतत्त्व वेत्ता पुरुष हिंस-हिंसा प्रसूत कर्म बैर का अनुबन्धन करने वाले हैं, अत्यंत भयप्रद तथा दुःखोत्पादक है-यह जानकर पाप से आत्मनिवृत्त रखे । टीका - मननं मतिः सा शोभना यस्यास्त्यसौ मतिमान, प्रशंसायां मतुप्, तदेवं शोभनमतियुक्तो मुमुक्षुर्नरः सम्यक्श्रुतचारित्राख्यं धर्म भावसमाधि वा 'बुध्यमानस्तु' विहितानुष्ठाने प्रवृत्तिं कुर्वाणस्तु पूर्व तावन्निषिद्धाचरणान्निवर्तेत अतस्तत् दर्शयति-'पापात्' हिंसानृतादि रूपात्कर्मण आत्मानं-निवर्तयेत् निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो-भवतीत्यतोऽशेषकर्मक्षयमिच्छन्नादावेव आश्रवद्वाराणि निरन्ध्यादित्यभिप्रायः, किं चान्यत्हिंसा-प्राणिव्यपरोपणं तया ततो वा प्रसूतानि-जातानि यान्यशुभानि कर्माणि तान्यत्यन्तं नरकादिषु यातनास्थानेषु दुःखानि-दुःखोत्पादकानि वर्तन्ते, तथा वैरमनुबन्धन्ति तच्छीलानि च बैरानुबन्धीनी-जन्मशत सहनदुर्मोचानि, अत एव महद्भयं येभ्यः सकाशात्तानि महाभयानीति, एवं च मत्वा मतिमानात्मानं पापान्निवर्तयेदिति, पाठान्तरं वा 'निव्वाणभूए व परिव्वएज्जा' अस्यायमर्थ:-यथा हि निवृतो निर्व्यापारत्वात्कस्यचिदुपघाते न वर्तते एवं साधुरपि सावद्यानुष्ठानरहितः परिसमन्ताद् व्रजेदिति ॥२१॥ टीकार्थ - मतिमान उसे कहा जाता है जिसकी बुद्धिशोभन-उत्तम या प्रशंसनीय होती है । मतिमान पद में व्याकरण के अनुसार प्रशंसा के अर्थ में 'मतुप्' प्रत्यय का प्रयोग हुआ है । शोभनमतियुक्त-उत्तम प्रज्ञाशील मोक्षाभिलाषी पुरुष सम्यक्श्रुत अथवा चारित्रमूलक धर्म को या भावसमाधि को समझता हुआ शास्त्रों में जिन कर्मों के करने का विधान किया गया है, उनमें प्रवृत्ति करे तथा शास्त्रों में जिनकर्मों का प्रतिषेध किया गया हो, उनका परिवर्जन करे । सूत्रकार इस संबंध में दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं-प्रज्ञाशील पुरुष हिंसा अनृतअसत्य आदि कर्मों से पहले अपने आप को निवृत करे क्योंकि निदान-कारण के उच्छेद-नाश से ही कार्य का उच्छेद होता है । अतः जो पुरुष समस्त कर्मों का क्षय चाहता है. वह आश्रव के द्वारों का अवरोध क सूत्रकार का ऐसा अभिप्राय है । प्राणियों के प्राण व्यप रोपण हिंसा से जो अशुभ कर्म-पाप उत्पन्न होते हैं वे जीव को नरक आदि यातनापूर्ण-घोर दुःखप्रद स्थानों में ले जाते हैं तथा सैंकड़ों हजारों वर्षों तक नहीं छूटने वाले बैर का अनुबन्ध करते हैं। अतएव वे अत्यन्त भयप्रद हैं । यह मानकर-जानकर मेधावी पुरुष अपने आपका पाप कर्मों से निवर्तन करे । यहां 'निव्वाण भूव्व परिवएज्जा' ऐसा पाठ भी प्राप्त होता है । इसका अभिप्राय यह है कि युद्ध से लौटा हुआ पुरुष निर्व्यापार-युद्ध कार्य से रहित होकर फिर किसी के उपघात-हिंसा में वर्तनशील नहीं होता-किसी प्रकार की हिंसा नहीं करता, उसी प्रकार सावद्य अनुष्ठान से-पापपूर्ण कार्यों से विवर्जित पुरुष संयम के पथ पर गतिशील रहे। ॐ ॐ ॐ मुसं न बूया मुणि अत्तगामी, णिव्वाणमेयं कसिणं समाहिं । सयं न कुज्जा नय कारवेजा, करंतमन्नपि य णाणुजाणे ॥२२॥ छाया - मृषा न ब्रूयान्मुनिराप्तगामी, निर्वाणमेतत्कृत्स्नं समाधिम् । स्वयं न कुर्य्यान्न च कारये त्कुर्वन्तमन्यमपि च नानुजानीयात् ॥ -462
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
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