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## The Sutra Kritanga Sutra - Translation
**The men who keep their souls pure from sinful actions and who have conquered their senses, do not approve of the sins committed, being committed, or to be committed by others.**
**Commentary:**
Those who are virtuous, do not approve of the sinful actions committed by others, who are like uncivilized people, whether those actions were committed in the past, are being committed now, or will be committed in the future. They do not approve of these actions with their mind, speech, or body. They do not partake in the enjoyment of the fruits of these actions. Even if others commit sinful actions for their own benefit, such as beheading an enemy, or killing a thief, the virtuous do not approve of these actions. They do not consider them to be praiseworthy. If someone offers them impure food, they do not accept it.
**Who are these men?** The Sutra explains: Those who have kept their souls pure by restraining their minds, speech, and bodies from unskillful actions, and who have conquered their senses, such as hearing, are the ones who do not approve of sinful actions.
**Verse 22:**
**Those who are great, valiant, and have not seen the truth of the Dharma, their actions are impure and will bear fruit in all ways.**
**Commentary:**
Some people may be considered learned, but they have not truly understood the Dharma. They may be skilled in grammar and logic, but they have not attained true knowledge. True knowledge is not merely about grammar and logic. It is about understanding the true nature of reality.
The Sutra says:
"Even if someone is deeply immersed in the study of scriptures, they will not attain the true nature of reality if they are not wise. Just as a person may be skilled in tasting different flavors, but they may not be able to taste the true flavor of a substance for a long time."
Even if someone is valiant and powerful, if they are not wise, their actions will be impure and will lead to suffering.
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् अनुवाद - आत्मगुप्त-अपनी आत्मा को पाप पूर्ण कार्यों से बचाये रखने वाले तथा जितेन्द्रीय-इन्द्रियों को वश में रखने वाले पुरुष किसी द्वारा किये गये, किये जाते, भविष्य में किये जाने वाले पाप का अनुमोदनसमर्थन नहीं करते ।
___टीका - साधूद्देशेन यदपरैरनार्यकल्पैः कृतमनुष्ठितं पापकं कर्म तथा वर्तमाने च काले क्रियमाणं तथाऽऽगामिनि च काले यत्करिष्यते तत्सर्वं मनोवाक्कायकर्मभिः 'नानुजानन्ति' नानुमोदन्ते, तदुपभोग परिहारेणेति भावः, यदप्यात्मार्थं पापकं कर्म परैः कृतं क्रियते करिष्यते वा, तद्यथा-शत्रोः शिरश्छिन्नं छिद्यते, छेत्स्यते वा तथा चौरो हतो हन्यते हनिष्यते वा इत्यादिकं परानुष्ठानं 'नानुजानन्ति' न च बहुमन्यन्ते, तथा यदि परः कश्चिद्शुद्धेनाहारेणोपनिमन्त्रयेत्तमपिनानुमन्यन्त इति,क एवम्भूता भवन्तीति दर्शयति-आत्माऽकुशलमनोवाक्कायनिरोधेन गुप्तो येषां ते तथा, जितानि-वशीकृतानि इन्द्रियाणि-श्रोत्रादीनि यैस्ते तथा, एवम्भूताः पापकर्म नानुजानन्तीति स्थितम् ॥२१॥
टीकार्थ - साधुओं को उद्दिष्ट कर अनार्यों जैसे पुरुषों ने जो पाप किये, वर्तमान में वे जो करते हों तथा भविष्य में जो करेंगे, साधु मानसिक, वाचिक एवं कायिक रूप से उनका अनुमोदन नहीं करते । उस पापमय पदार्थ का उपभोग नहीं करते । दूसरों ने अपने स्वार्थ हेतु जो पाप कर्म किये हों जो वे करते हों, करेंगे जैसे शत्रु का मस्तक छिन्न कर डाला गया, छिन्न किया जा रहा है या छिन्न किया जायेगा तथा चोर को मार डाला गया, वह मारा जा रहा है या मार डाला जायेगा इत्यादि कार्यों का साधु अनुमोदन नहीं करते दूसरा कोई अशुद्ध भोजन तैयार कर साधु को आमन्त्रित करें तो साधु उसे स्वीकार नहीं करते । ऐसे पुरुष कौन हैं, यह दिग्दर्शन कराने हेतु सूत्रकार कहते हैं कि अकुशल-सावद्य या पापपूर्ण मन, वचन एवं शरीर को-उनकी प्रवृत्तियों का अवरोध कर जिन्होंने अपने आपको गुप्त पापयुक्त बना रखा हो तथा श्रोत्र-कान आदि इन्द्रियों को अपने वश में किया हो-जीता हो, ऐसे पुरुष पहले कहे गये पापों का अनुमोदन-समर्थन नहीं करते।
जे याबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्तदंसिणो ।
असुद्धं तेसि परक्वंतं, सफलं होइ सप्तसो ॥२२॥ छाया - ये चाबुद्धा महाभागा वीरा असम्यक्त्वदर्शिनः ।
अशुद्धं तेषां पराक्रान्तं, सफलं भवति सर्वशः ॥ अनुवाद - जो महाभाग-लोगों द्वारा माननीय हैं, वीर-शौर्यशाली है पर यदि वे धर्म के यथार्थ तत्त्व को नहीं जानने वाले असम्यक् दृष्टि-मिथ्या दृष्टि हैं तो उनका पराक्रम-उन द्वारा किये गये पुण्य कार्य अशुद्ध हैं, वे कर्म बंध लिए हैं ।
टीका - अन्यच्च-येकेचन ‘अवुद्धा' धर्मं प्रत्यविज्ञातपरमार्थाव्याकरणशुष्कतर्कादिपरिज्ञानेन जातावलेपाः पण्डितमानिनोऽपि परमार्थवस्तुतत्त्वा नव बोधाद् बुद्धा इत्युक्तं, न च व्याकरण परिज्ञान मात्रेण सम्यक्त्वव्यतिरेकेण तत्त्वा व बोधा भवतीति, तथा चोक्तम् -
"शास्त्रावगाहपरिघट्टनतत्परोऽपि, नैनाबुधः समभिगच्छति वस्तुतत्त्वम् ।
नानाप्रकाररसभावगताऽपिदवी, स्वादं रसस्य सुचिरादपि नैव वेत्ति , ॥२॥" यदि वाऽबुद्धा इव बालवीर्यवन्तः, तथा महान्तश्च ते भागाश्च महाभागाः, भाग शब्दः पूजावचन:, ततश्च महापूज्या इत्यर्थः, लोकविश्रुता इति, तथा 'वीराः' परानीकभेदिनः सुभटा इति, इदमुक्तं भवति-पण्डिता
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