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The Sutra Kritanga Sutra states that men who kill various types of living beings, are liars, and generate a mass of sins, go to terrifying hells. **Verse 4:** * **Original:** तिव्वं तसे पाणिगो थावरे य, जे हिसंती आयसुहं पडुच्चा । जे लूसए होइ अदत्त हारी, ण सिक्खती सेयवियस्स किंचि ॥४॥ छाया - तीवं त्रसान् स्थावरान् योहिनस्त्यात्मसुखं प्रतीत्य । _ योलूषको भवत्यदत्तहारी, न शिक्षते सेवनीयस्य किञ्चित् ॥ * **Translation:** Those who, for their own comfort and pleasure, cruelly and mercilessly kill both mobile and immobile beings, oppress them, cause them suffering, and take the possessions of others without permission, do not learn even a little about the practice of self-control, which is beneficial for oneself. **Verse 5:** * **Original:** पागब्भि पाणे बहुणं तिवाति, अतिव्वतेघातमुवेति बाले । णिहो णिसं गच्छति अंतकाले, अहो सिरं कटु उवेइ दुग्गं ॥५॥ छाया - प्रागल्भी प्राणानां बहूनामतिपाती, अनिर्वतो घातमुपैति बालः । न्यग् निशां गच्छत्यन्तकाले, अधः शिरः कृत्वोपैति दुर्गम् ॥ * **Translation:** The man who is bold and arrogant in killing many living beings, who is always burning with the fire of anger, and who is ignorant, goes to hell. At the time of death, he goes down into darkness, with his head bowed, to a place of great suffering.
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________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् नाना प्रकार के प्राणियों का व्यापादन करने वाले, असत्यवादी तथा पाप राशि उत्पन्न करने वाले पुरुष इस प्रकार के भयावह नरकों में जाते हैं - तिव्वं तसे पाणिगो थावरे य, जे हिसंती आयसुहं पडुच्चा । जे लूसए होइ अदत्त हारी, ण सिक्खती सेयवियस्स किंचि ॥४॥ छाया - तीवं त्रसान् स्थावरान् योहिनस्त्यात्मसुखं प्रतीत्य । ___ योलूषको भवत्यदत्तहारी, न शिक्षते सेवनीयस्य किञ्चित् ॥ अनुवाद - जो पुरुष अपने सुख सुविधा हेतु त्रस एवं स्थावर प्राणियों की तीव्रता-निष्करूणता के साथ हिंसा करता है, उनका उपमर्दन करता है, कष्ट देता है तथा किसी अन्य व्यक्ति की वस्तु उसके बिना दिये ले लेता है, वह सेवनीय-सेवन करने योग्य संयम का जरा भी पालन नहीं करता । टीका - तथा 'तीव्रम्' अतिनिरनुकम्प रौद्रपरिणामतया हिंसायां प्रवृतः, त्रस्यन्तीति त्रसाः-द्वीन्द्रियादयस्तान् तथा स्थावरांच' पृथिवीकायादीन् यः कश्चिन्महामोहोदयवर्ती हिनस्ति' व्यापादयति आत्मसुखं प्रतीत्य' स्वशरीरसुखकृते, नानाविधैरूपायैर्यः प्राणिनां 'लूषक' उपमर्दकारी भवति, तथा अदत्तमपहर्तुं शीलमस्या सावदत्तहारी-परद्रव्यापहारकः तथा 'नशिक्षते' नाभ्यस्यति नादत्ते 'सेयवियस्स' त्ति सेवनीयस्यात्महितैषिणा सदनुष्ठेयस्य संयमस्य किञ्चिदिति, एतदुक्तम् भवति-पापोदयाद्विरतिपरिणामं काकमांसादेरपि मनागपि न विधत्त इति ॥४॥ तथा - टीकार्थ - जो पुरुष महामोहनीय कर्म के उदित होने पर अपने सुख हेतु अत्यन्त निर्दयतापूर्वक रौद्र परिणाम-क्रोधावेश के साथ हिंसा में संलग्न हैं, द्विन्द्रिय एवं त्रस प्राणियों और पृथ्वीकाय आदि स्थावर प्राणियों का विनाश करता एवं उन्हें तरह-तरह के उपायों से कष्ट देता है और बिना दिये किसी अन्य का द्रव्य हर लेता है, वह आत्म कल्याण के लिए आचरण करने योग्य संयम का जरा भी सेवन नहीं करता । . पागब्भि पाणे बहुणं तिवाति, अतिव्वतेघातमुवेति बाले । णिहो णिसं गच्छति अंतकाले, अहो सिरं कटु उवेइ दुग्गं ॥५॥ छाया - प्रागल्भी प्राणानां बहूनामतिपाती, अनिर्वतो घातमुपैति बालः । न्यग् निशां गच्छत्यन्तकाले, अधः शिरः कृत्वोपैति दुर्गम् ॥ अनुवाद - जो पुरुष जीवों के अतिपात-व्यापादन में बड़ा प्रगल्भ-ढीठ है और धृष्टता पूर्वक बहुत से जीवों को नष्ट करता है, सदा क्रोध की आग से जलता रहता है वह अज्ञानी नर्क को प्राप्त करता है । वह मरकर नीचे-अधोलोक में अन्धकार में, नीचा सिर किये अत्यन्त पीड़ाप्रद स्थान को प्राप्त करता है। टीका - 'प्रागल्भ्यं' धाष्टय तद्विद्यते यस्य स प्रागल्भी, बहूनां प्राणिनां प्राणानतीव पातयितुं शीलमस्य स भवत्यति पाती, एतदुक्तं भवति-अतिपात्यपि प्राणिनः प्राणानतिधार्टाद्वदति यथा-वेदाभिहिता हिंसा हिंसैव न भवति, तथा राज्ञामयं धर्मो यदुत आखेटबकेन विनोदक्रिया, यदि वा - "न मांस भक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥१॥" 310
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
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