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The **Śrī Sūtra Kṛtāṅga Sūtra** commentary, a collection of verses, describes a beautiful and virtuous **anagāra** (a monk who has renounced worldly life), who is self-aware and has attained self-knowledge. Some **śvairīṇī** (women who are free and unrestrained) invite him, saying, "O **Trāyin** (protector)! We will give you all that you need, such as clothes, vessels, and drinks. Please come to our house and accept them." ||30||
The commentary explains that the **śvairīṇī** women invite the **anagāra** with the intention of tempting him. The **anagāra** should understand this invitation as a trap, like rice grains scattered to lure a pig. He should not desire to go to their house, for he is bound by the **viṣaya** (objects of sense) and will fall into **moha** (delusion). ||31||
The commentary further explains that the **anagāra** should not desire to return to the **agāra** (household life), as he is bound by the **viṣaya** (objects of sense) and will fall into **moha** (delusion). The **viṣaya** are like ropes that bind the ignorant soul, making him unable to break free from the bonds of attachment. He becomes confused and bewildered, unable to discern right from wrong. ||31||
This concludes the first section of the **Śrī Sūtra Kṛtāṅga Sūtra** commentary on the knowledge of women. ||4-1||
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् टीका-संलोकनीयं-संदर्शनीयमाकृतिमन्तं कञ्चन 'अनगारं' साधुमात्मनि गतमात्मगतम् आत्मज्ञमित्यर्थः तदेवम्भूतं काश्चन स्वैरिण्यो 'निमन्त्रणेन' निमन्त्रणपुर:सरम् 'आहुः' उक्तवत्यः, तद्यथा-हे त्रायिन् ! साधोवस्त्रं पात्रमन्यद्वा पानादिकं येन केचचिद्भवतः प्रयोजनं तदहं भवते सर्वंददामीति मद्गृहमागत्य प्रतिगृहाण त्वमिति ॥३०॥ उपसंहारार्थमाह -
टीकार्थ - देखने में जो सुन्दर और उत्तम आकृति के प्रतीत होते हैं, ऐसे आत्मज्ञानी साधु को कई श्वैरिणीव्यभिचारिणी स्त्रियाँ आमंत्रित करती हुई कहती हैं कि हे त्राण करने वाले ! रक्षा करने वाले मुनिवर ! वस्त्र, पात्र तथा पीने योग्य वस्तुएं आदि जो आपको चाहिए, वे सब मैं आपको दूंगी आप मेरे घर आकर उन्हें ग्रहण करें।
णीवार मेवं बुज्झेण, णो इच्छे अगारमागंतुं । बद्धे विसयपासे हिं , मोह मावजइ पुणो मंदे ॥३१॥त्तिबेमि॥ छाया - नीवारमेव बुध्येत, नेच्छेदगारमान्तुम् ।
बद्धो विषयपाशेन मोह मापद्यते पुनर्मन्दः ॥ इति ब्रवीमि ॥ ___ अनुवाद - पूर्वोक्त रूप में दिए गए प्रलोभनों को साधु सूअर को फंसाने हेतु जाल में फैलाये गए चावल के दानों के समान समझे, वह वापस गृहस्थ में आने की इच्छा न करे । विषय रूपी फंदे में बंधा हुआ अज्ञानी पुरुष मोह को प्राप्त हो जाता है-मोह मूढ़ बन जाता है, ऐसा मैं कहता हूँ ।
टीका- एतघोषितां वस्त्रादिकमामन्त्रणं नीवारकल्प बुध्येत' जानीयात्, यथा हि नीवारेण केनचिद्भक्ष्यविशेषण सूकरादिवंशमानीयते, एवमसावपितेनामन्त्रणेन वशमानीयते, अतस्तन्नेच्छेद् ‘अगारं' गृहं गन्तुं, यदिवा-गृहमेवावों गृहावर्तों गृहभ्रमस्तं 'नेच्छेत्' नाभिलषेत्, किमिति ?, यतो 'बद्धो' वशीकृतो विषया एव शब्दादयः 'पाशा' रज्जूबन्धनानि तैर्बद्धः-परवशीकृतःस्नेह पाशानपत्रोटयितुमसमर्थःसन्'मोहं चित्तव्याकुलत्वमागच्छति-किंकर्तव्यतामूढो भवति पौनः पुन्येन 'मन्दः' अज्ञो जड इतिः परिसमाप्तौ । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥३१॥ इति स्त्रीपरिज्ञायां प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥४-१॥
टीकार्थ - अब इस उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि स्त्रियों द्वारा वस्त्र पात्र आदि देने के रूप में जो आमन्त्रण किया जाता है, साधु उसे चावल के दाने के समान समझे, जैसे चावल के दानों को बिखेर कर सूअर आदि को वश में किया जाता है, पकड़ा जाता है, उसी प्रकार स्त्री भी वस्त्र पात्र आदि देने हेतु आमंत्रित कर साधु को अपने अधीन बना लेती है । इसलिए साधु उस स्त्री के घर ज की इच्छा न करे अथवा घर रूपी आवर्त में-जल के भँवर में गिरने का अभिलाषी न बने । शब्दादि विषय, पाश या बंधन के समान है, जिनसे बद्ध हुआ अज्ञानी जीव स्नेह के बंधन को तोड़ पाने में सक्षम नहीं होता, वह पुनः पुनः चिन्ता से व्याकुल होता है, किंकर्तव्यविमूढ़ बन जाता है । उसे क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए, इसका ज्ञान नहीं रहता । यहाँ इति शब्द समाप्ति के अर्थ में है, ब्रवीमि-बोलता हूँ यह पहले की ज्यों योजनीय है।
स्त्री परिज्ञा का पहला उद्देशक समाप्त हुआ ।
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