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Jain Terms Preserved:
The woman was sleeping in the lap. Therefore, due to her previous practice, she behaves this way with me. I know the nature of the world-substance, even if the living beings are destroyed, I will not break the vow.
The second foolishness of the ignorant child is that he commits sin but does not acknowledge it. In this way, he commits double the sin. He desires fame and reputation in the world, thus he wishes for indiscipline - he wants to move forward in the direction of indiscipline.
Commentary: The one who is afflicted by attachment and aversion, who is ignorant and does not see the ultimate truth or liberation, his second foolishness is that on one hand, he commits the wrong act of breaking the fourth vow of celibacy, and on the other hand, he denies having done so, he speaks falsehood. The author explains that by such unrighteous conduct and denial, he commits double the sin. Why does he deny? It is because he desires honor, respect, and reputation in the world, he wants to hide his sinful act, thus he wishes for indiscipline, he wants to move towards the path of indiscipline.
"They said to the ascetic who is worthy of being looked at, who has attained self-knowledge: 'O protector from the ocean of the world! Please accept from us the clothes, the bowl, the food, and the drink.'"
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स्त्री परिज्ञाध्ययनं गोद में सोती थी । इसलिए अपने पहले के अभ्यास के कारण ही मेरे साथ इस प्रकार आचरण करती है । मैं तो संसार के स्वरूप को-वस्तुतत्व को जानता हूँ, प्राणों का नाश होने पर भी व्रत भंग नहीं करूँगा ।
बालस्स मंदयं बीयं, जं कडं अवजाणई भुजो। दुगुणं करेई से पावं, पूयण कामो विसन्नेसी ॥२९॥ छाया - बालस्य मान्द्यं द्वितीयं, यच्च कृतमपजानीते भूयः ।
द्विगुणं करोति स पापं पूजन कामो विषण्णैषी ॥ अनुवाद - उस बाल-अज्ञानी पुरुष की दूसरी मंदता-मूर्खता यह है कि वह पाप कर्म करता है पर उसे स्वीकार नहीं करता, इस प्रकार वह दुगुना पाप करता है । वह संसार में अपनी कीर्ति और प्रतिष्ठा की कामना करता है ऐसा कर वह मानो असंयम की इच्छा करता है-असंयम की दिशा में आगे बढ़ना चाहता है।
टीका- 'बालस्य' अज्ञस्य रागद्वेषा कुलितस्यापरमार्थदृश एतद् द्वितीय मान्छ' अज्ञत्वम् एकं तावदकार्यकरणेन चतुर्थ व्रतभङ्गो द्वितीयं तदपलपतेनमृषावादः, तदेव दर्शयति-यत्कृतमसदाचरणं भूयः'पुनरपरेण चोद्यमानः अपजानीते' अपलपति-नैतन्मया कृतमिति, स एवम्भूत असदनुष्ठानेन तदपलपवेन च द्विगुणं पापं करोति, किमर्थमपलपतीत्याहपूजनं-सत्कारपुरस्कारस्तत्-कामः तदभिलाषी मा मे लोके अवर्णवाद स्यादित्यकार्यं प्रच्छादयति विषण्ण:असंयमस्तमेषितुं शीलमस्येति विषण्णैषी ॥२९॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - जो पुरुष राग द्वेष से आकुल है, अज्ञ-ज्ञान रहित है, अपरमार्थदर्शी परमार्थ या मोक्ष को नहीं देखता, उसकी दूसरी मूर्खता यह है कि एक ओर वह दुष्कार्य कर चतुर्थव्रत ब्रह्मचर्य का भंग करता है, दूसरी ओर वैसा करना स्वीकार नहीं करता है, वह मिथ्या भाषण करता है कि मैंने ऐसा नहीं किया । सूत्रकार इस का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं कि उस अज्ञानी पुरुष ने जो असत्-दुषित कार्य किया, उसके सम्बन्ध में पूछे जाने पर वह अपलाप करता है, इन्कार करता है कि मैंने यह कुकृत्य नहीं किया इस प्रकार वह कुत्सित कर्म करने तथा उसे स्वीकार न करने के रूप में द्विगुणित पाप करता है, वह पाप करने पर भी फिर अस्वीकार क्यों करता है ? इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार बतलाते हैं कि-संसार में अपनी पूजा-प्रतिष्ठा, कीर्ति की चाह करता है, वह सोचता है कि संसार में मेरी निन्दा अपकीर्ति न हो, इसलिए वह अपने कलुषित कार्य का प्रच्छादनछिपाव करना चाहता है, वैसा करने वाला असंयम की इच्छा करता है ।
संलोकणिजमणगारं, आयगयं निमंतणेणाहंसु । । वत्थं च ताइ ! पायं वा, अन्नं पाणगंपडिग्गाहे ॥३०॥ छाया - संलोकनीयमनगार मात्मगतं निमन्त्रणेनाहुः ।
वस्त्रञ्च त्रायिन् पात्रं वा अन्नं पानकं प्रतिगृहाण ॥ अनुवाद - जो साधु संलोकनीय-देखने में सुन्दर लगता है, आत्मज्ञ-ज्ञानी है, स्त्रियाँ उसे अपनी ओर आकृष्ट करने हेतु आमंत्रित करने हेतु कहती हैं, संसार सागर से त्राण देने वाले-रक्षा करने वाले मुनिवर्य ! आप मेरे यहाँ से वस्त्र, पात्र, आहार, पेय पदार्थ ग्रहण करें, स्वीकार करें।
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