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- Even if a monk is seen to be indifferent, some people get angry. They suspect the woman of being immoral because she provides him with food.
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________________ - स्त्री परिज्ञांध्ययन समणंपि ददासीणं, तत्थवि ताव एगे कुप्पंति । अदुवा भोयणेहिं णत्थेहिं, इत्थीदोसं संकिणो होति ॥१५॥ छाया - श्रमणमपि दृष्ट्वोदासीनं, तत्रापि तावदेके कुप्यन्ति । अथवा भोजनैन्यस्तैः स्त्रीदोषशङ्किनो भवन्ति ॥ अनुवाद - उदासीन विरक्त और तपस्वी साधु को भी एकान्त में किसी नारी के साथ देखकर कतिपयजन क्रुद्ध हो जाते हैं और वे उस स्त्री में दोष की आशंका करने लगते हैं । उन्हें लगता है कि यह स्त्री साधु को चाहती है । इसलिए तरह-तरह के आहार उसे देती है। टीका - श्राम्यतीति श्रमणः-साधुः अपि शब्दोभिन्नक्रमः तम् 'उदासीनमपि' रागद्वेषविरहान्मध्यस्थमपि दृष्ट्वा, श्रमणग्रहणं तपः-खिन्नदेहोपलक्षणार्थं, तत्रैवम्भूतेऽपि विषयद्वेषिण्यपि साधौ तावदेके केचन रहस्यस्त्री जल्पनकृतदोषत्वात्कुप्यन्ति यदि वा पाठान्तरं "समणं ढह्णुदासीणं" 'श्रमणं' प्रव्रजिते 'उदासीनम्' परित्यक्त निजव्यापारं स्त्रिया सह जल्पन्तं 'दृष्ट्वा' उपलभ्य तत्राप्येके केचन तावत् कुप्यन्ति, किं पुनः कृतविकार मितिभावः, अथवा स्त्रीदोषशनिश्च ते भवन्ति, ते चामी स्त्रीदोषाः 'भोजनैः' नानाविधैराहारैः 'न्यस्तेः'साध्वर्थमुपकल्पितैरेतदर्थमेव संस्कृतैरियमेनमुपचरित तेनायमहर्निशमिहागच्छतीति, यदि वा भोजनैः श्वशुरादीनां न्यस्तैः अर्धदत्तैः सद्भिः सा वधूः साध्वागमनेन समाकुलीभूता सत्यन्यस्मिन् दातव्येऽन्यद्दद्यात्, ततस्ते स्त्रीदोषाशङ्किनो भवेयुर्यथेयं दुःशीलाऽनेनैव सहास्त इति, निदर्शनमत्र यथा-कयाचिद्धध्वा ग्राममध्यप्रारब्धनट-प्रेक्षणैकगतचित्तया पतिश्वशुरयोर्भोजनार्थमुपविष्टयोस्तण्डुला इतिकृत्वा राइकाः संस्कृता दत्ताः, ततोऽसौ श्वशुरेणोपलक्षिता, निजपतिना क्रुद्धेन ताडिता, अन्यपुरुषागतचित्तेत्याशङ्कय स्वगृहान्निर्धाटितेति ॥१५॥ किञ्चान्यत् - टीकार्थ - जो श्रम करता है-संयम मूलक साधना में आत्मपराक्रमी होता है, तप करता है, उसे श्रमण कहा जाता है, अर्थात् साधु को श्रमण कहते हैं । यहां 'अपि' शब्द भिन्न कुम का द्योतक है । जो पुरुष राग द्वेष से विरहित है,-मध्यस्थ, तटस्थ भावयुक्त है, तप से जिसका शरीर खिन्न परिश्रान्त है, जो सांसारिक काम भोग मय सुख का द्वेषी है, उसे बुरा मानता है, इस कोटि के साधु को भी किसी औरत के साथ एकांत में बातचीत करते हुए देखकर कुछ लोग कुपित हो जाते हैं, यहाँ प्रयुक्त समण-श्रमण शब्द तपस्या से खिन्न शरीर का द्योतक है । 'समण' ढठूणु दासीणं-श्रमणं दृष्ट्वा उदासीनं ऐसा पाठान्तर प्राप्त होता है, तदनुसार जो साधु अपना कार्य त्यागकर स्त्री के साथ आलाप संलाप करता है, उसे देखकर कई क्रोधित हो जाते है, जब राग द्वेष रहित तपसेवी साधु को भी औरत के साथ एकांत में बातें करते देखकर लोग कुपित हो जाते हैं, तो फिर जिस साधु के मन में स्त्री के संग से विकृति पैदा हो गई है, उसकी तो बात ही क्या ? अथवा औरत के साथ एकांत में बातें करते देखकर लोग उस औरत में दोष की आशंका करते हैं । वे दोष यों हैं-यह स्त्री तरह-तरह के भोज्य पदार्थ इस साधु के लिए उपकल्पित कर-बनाकर इसे देती है । इसी कारण यह साधु दिन रात यहाँ आता जाता है । यह स्त्री अपने श्वसुर आदि को आधा भोजन परोसकर साधु के आते ही चंचल चित्त हो जाती है । श्वसुर को जो पदार्थ परोसना हो, उसके बदले दूसरा परोस देती है । तो लोग उस औरत पर शंका करते हैं कि यह चरित्रहीन औरत इस साधु के साथ संबद्ध है । इस संबंध में एक निदर्शन-उदाहरण है-कोई स्त्री खाने बैठे हुए अपने श्वसुर एवं पति को भोजन परोस रही थी, किन्तु उसका मन उस समय गांव के बीच होने वाले नटों के नृत्य खेल आदि देखने में लगा था, इसलिए उसने चांवलों के बदले राई उबाल -275
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
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