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English translation preserving Jain terms:
Seeing the Shri Sutrakritanga Sutra, doubt may arise, therefore, to dispel that doubt, one should renounce the contact with a woman.
The Shastrakara (author) explains that when a Sadhu (ascetic) is seen with a woman, it creates doubt in the minds of others.
"Adunainom cha suhinom va, appiyam daddu ekata hoti. Giddha satta kamehi, rakkhanaposaname manusso'si" (14) - Meaning: Seeing the pure or the knowledgeable ones, sometimes it becomes unpleasant. The greedy beings, attached to sensual pleasures, (think) "You are the protector and nourisher (of this woman)."
Commentary: When a solitary woman is seen with a Nirgrantha (ascetic), it causes great distress in the minds of her family members and relatives. They think that just as other common people are engrossed in sensual pleasures, similarly this ascetic is also greedy and infatuated with desire. Then they say to him - "You are the man of this (woman), you are associated with her, then why don't you take care and nourish her?"
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- श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् देखकर शंका पैदा हो सकती है, इसलिए उस शंका के निरास-निवृत्ति हेतु उसे स्त्री के सम्पर्क का परिहारपरित्याग कर देना चाहिए।
साधु को स्त्री के साथ देखकर दूसरे के मन में जिस प्रकार शंका उत्पन्न होती है, उसका दिग्दर्शन कराते हुए शास्त्रकार निरूपण करते हैं ।
अदुणाइणं च सुहीणं वा, अप्पियं दद्दू एगता होति । गिद्धा सत्ता कामेहिं, रक्खणपोसणे मणुस्सोऽसि ॥१४॥ छाया - अथ ज्ञानीनां सुद्धदां वा दृष्ट्वा एकदा भवति ।
गृद्धाः सत्त्वाः कामेषु रक्षणपोषणे मनुष्योऽसि ॥ अनुवाद - किसी महिला को एकांत में साधु के पास स्थित देखकर उसके पारिवारिक जनों एवं सम्बन्धियों के चित्त में बड़ी पीड़ा पैदा होती है । वे सोचते हैं कि जिस प्रकार दूसरे सामान्य जन कामासक्त संलग्न रहते हैं, उसी तरह ये साधु काम में गृद्ध-मूर्च्छित हैं । फिर वे उससे यहाँ तक कहते हैं-तुम इसके आदमी हो, इससे संशक्त हो, फिर इसका पालन पोषणं क्यों नहीं करते ।
टीका-'अदुणाइणम्' इत्यादि, विविक्तयोषिता सार्धमनगारमथैकदा दृष्ट्वा योषिज्जातीनां सुहृदां वा 'अप्रियं चित्तदुःखासिका भवति, एवं च ते समाशङ्करन्, यथा-सत्त्वाः-प्राणिन इच्छामदनकामैः 'गृद्धा' अध्युपपन्नाः, तथाहिएवम्भूतोऽप्ययं श्रमणः स्त्रीवदनावलोकनासक्तचेताः परित्यक्तनिजव्यापारोऽनया सार्धं निहींकस्तिष्ठति, तदुक्तम् -
"मुण्डं शिरो वदन मेतदनिष्टगन्धं, भिक्षाशनेन भरणं च हतोदरस्य । गात्रं मलेन मलिनं गतसर्वशोभं, चित्रं तथापि मनसो मदनेऽस्ति वाञ्छा ॥१॥"
तथातिक्रोधाध्मातमानसाश्चैवमूचुर्यथा-रक्षणं पोषणं चेति विगृह्य समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् रक्षणपोषणे सदाऽऽदरं कुरु यतस्त्वमस्याः 'मनुष्योऽसि' मनुष्यो वर्तसे, यदि वा यदि परं वयमस्या रक्षणपोषणव्यापृतास्त्वमेव मनुष्यो वर्तसे, यतस्त्वयैव सार्धमियमेकाकिन्यहर्निशं परित्यक्तनिजव्यापारातिष्ठतीति ॥१४॥ किञ्चान्यत् -
' टीकार्थ - एकाकिनी नारी के साथ एकांत में अवस्थित साधु को देखकर उस नारी के स्वजातीय जन और रिश्तेदार मन में बड़े दुःखित होते हैं । वे यह आशंका करते हैं, संदेह करते हैं कि जैसे अन्य व्यक्ति काम भोगों में लुब्ध है, उसी प्रकार यह साधु भी काम लोलुप है, क्योंकि यह अपने सभी कार्यों का परित्याग कर सदैव इस नारी के मुख को निर्लज्जता से देखता हुआ इसके साथ बैठा रहता है । कहा है-जिसका सिर मुंडा हुआ है, जिसमें मुँह से अनिष्ट गंध-बदबू आती है, भिक्षा से प्राप्त अन्न द्वारा जो अपना पेट भरता है, सारा शरीर मैल से गंदा और शोभारहित है, तो भी कितना बड़ा आश्चर्य है कि इसकी मन की वाञ्छा काम भोग में संशक्त है । उस औरत के जाति के लोग गुस्से में आकर कहते हैं तुम इसके मनुष्य हो, मालिक हो, इसका रूचिपूर्वक पालन पोषण करो । अथवा हम तो केवल इसकी रक्षा तथा पालन पोषण व्याप्त है-लगे हैं तुम्हीं इसके आदमी हो, पति हो-क्योंकि तुम्हारे ही साथ यह अपने सारे कार्य छोड़कर दिन रात अकेली बैठी रहती है।
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