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**The Sutra Kritanga Sutra, Chapter Four, Study of Women**
**First Section**
He who has renounced his former connections with his mother and father, and all other attachments, will live alone, free from sexual desire, in secluded places. (1)
**Commentary:**
This section is connected to the previous Sutra, which states that a renunciant should strive for liberation. This liberation is only possible for one who has renounced all attachments. Therefore, this section discusses the renunciation of attachments.
The "he" refers to a virtuous soul who has renounced his mother, father, siblings, children, and all other past connections, as well as his in-laws and other future connections. He is free from all attachments and is devoted to knowledge, insight, and good conduct. He has vowed to live a life of restraint and will practice this vow in secluded places, free from women, animals, and eunuchs.
This section highlights the importance of renouncing all attachments and living a life of restraint. It also warns against the temptations of women, who may try to lure renunciants away from their path.
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श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रम् चतुर्थ स्त्री परिज्ञाध्ययन
प्रथम उद्देशकः जे मायरं च पियरं च, विप्पजहाय पुव्व संयोगं । । एगे सहिते चरिस्सामि, आरतमेहुणो विवित्तेसु ॥१॥ छाया - यः मातरं च पितरं च विप्रहाय पूर्वसंयोगम् ।
एकः सहितश्चरिष्यामि आरतमैथुनो विविक्तेषु ॥ अनुवाद - एक पुरुष विरक्तिवश दीक्षा ग्रहण करता है और यह चिन्तन करता है कि मैं माता पिता आदि गृहस्थगत पूर्व संबंधों का परित्याग कर अब्रह्मचर्य वर्जित रहता हुआ-ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ, ज्ञान दर्शन और चारित्र पूर्वक विविक्त-एकांत पवित्र स्थान में विचरण करूँगा । (स्त्रियाँ-उसको छल पूर्वक वशगत करने का प्रयत्न करती हैं)
टीका - अस्य चायमनन्तरसूत्रेण सह सम्बन्धः, तद्यथा अनन्तरसूत्रेऽभिहितम्, आमोक्षाय परिव्रजेदिति, एतच्चाशेषामिष्वङ्गवर्जितस्य भवतीत्यतोऽनेन तदभिष्वङ्गवर्जनममिधीयते, 'य:' कश्चिदुत्तमसत्त्वो 'मातरं पितरं' जननी जनयितारम्, एतद्ग्रहणादन्यदपि भ्रातृपुत्रादिकं पूर्वसंयोगं तथा श्वश्रूश्वशुरादिकं पश्चात्संयोगं च 'विप्रहाय 'त्यक्त्वा, चकारौ समुच्चयार्थी, ‘एको' मातापित्राद्यभिष्वङ्गवर्जितः कषायरहितो वा तथा सहितो ज्ञानदर्शनचारित्रैः स्वस्मै वा हित: स्वहितः-परमार्थानुष्ठानविधायी 'चरिष्यामि' संयमं करिष्यामीत्येवं कृतप्रतिज्ञः, तामेव प्रतिज्ञां सर्वप्रधानभूतां लेशतो दर्शयति - 'आरतम्' उपरतं मैथुनं-कामाभिलाषो यस्यासावारतमैथुनंः, तदेवम्भूतो 'विविक्तेषु' स्त्रीपशुपण्डकवर्जितेषु स्थानेषु चरिष्यामीत्येवं सम्यगुत्थानेनोत्थाय विहरतीति, क्वचित्पाठो 'विवित्तेसित्ति' 'विविक्तं' स्त्रीपण्डकादिरहितं स्थानं संयमानुपरोध्येषितुं शीलमस्य तथेति ॥१॥ तस्यैवं कृतप्रतिज्ञस्य साधोर्यद्भवत्यविवेकि स्त्रीजनात्तद्दर्शयितुमाह -
टीकार्थ - पूर्व सूत्र के साथ इस अध्ययन का सम्बन्ध इस प्रकार है-पूर्व सूत्र में वर्णित हुआ है कि साधु मोक्ष प्राप्त करने तक अपने परिव्रजित-दीक्षित जीवन का परिपालन करे, किन्तु वह मोक्ष तो उस पुरुष को प्राप्त होता है, जो समस्त अभिष्वङ्ग मोह का परित्याग कर देता है । अतः इस अध्ययन में मोहवर्जन का विवेचन किया जाता है।
जो कोई उत्तम सत्त्व-पवित्र भावना युक्त साधु माता-पिता, भ्राता, पुत्र आदि अपने पूर्ववर्ती सम्बन्धियों एवं सासश्वसुर आदि पश्चात्वर्ती सम्बन्धियों का परित्याग कर, उन सबके सम्बन्ध में विवर्जित होकर एकाकी अथवा कषाय रहित, ज्ञान दर्शन एवं चारित्र सम्पन्न आत्महित या परमार्थ के अनुष्ठान में अभिरत होकर ऐसी प्रतिज्ञा किये हुए है कि संयम का पालन करूँगा, वह प्रतिज्ञा सर्वप्रधान सर्वोत्तम है । शास्त्रकार अंशत: उसका प्रतिपादन करते हैं । वह साधु जिसकी कामभिलाषा-काम भोग की वासना मिट गई है, जो 'स्त्री' पशु तथा नपुंसक वर्जित स्थानों में विचरेगा, 'ऐसी प्रतिज्ञा कर सम्यक् चारित्र का परिपालन करता हुआ विचरणशील है, उसके प्रति विवेक शून्य स्त्रियाँ क्या करती हैं यह बतलाते हैं, यहाँ कहीं विवित्तेसि ऐसा पाठ प्राप्त होता
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