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The Sutrakar says that you consume food prepared from seeds and grains, and water, which is prepared through the process of crushing, grinding, and cooking. This food is prepared for the sick and ailing monks, and it is also consumed by you. In this way, you consume food prepared from seeds and grains, and water, and you also consume food that is prepared for a specific purpose, while eating in the homes of householders, and while being served by them.
The Sutra says: "You are bound by intense heat, you are devoid of right understanding, and you are not in a state of concentration. Scratching a wound too much is not beneficial, because it causes harm."
The commentary explains that you are bound by intense heat, which is the result of karma, because you consume food that is prepared for the sick and ailing monks, and because you hold onto false views, and because you criticize the monks. You are devoid of right understanding because you do not carry a begging bowl, and you eat in the homes of householders, and you consume food that is prepared for a specific purpose. You are not in a state of concentration because you hate the virtuous monks.
The commentary further explains that just as scratching a wound too much is not beneficial, because it causes harm, so too is it not beneficial for you to be devoid of right understanding, and to claim that you are without possessions, while abandoning the begging bowl, which is a tool for restraint, and which protects the six classes of beings. By abandoning the begging bowl, you are consuming impure food, and this is not beneficial.
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् करने में-भिक्षार्थ जाने में असमर्थ रुग्ण साधु के लिए आप गृहस्थों द्वारा भोजन मंगवाते हैं । साधु को गृहस्थों द्वारा भोजन मंगवाने का अधिकार नहीं है । इसलिए गृहस्थों द्वारा लाये गये आहार के सेवन से जो दोष होता है वह आपको अवश्य लगता है । इसी बात का दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार कहते हैं बीज सचित धान्य, सचित जल के उपमर्दन - आरम्भ-समारंभ द्वारा जो आहार तैयार करते हैं, उसका आप सेवन करते हैं, ग्लान रुग्ण साधु के निमित्त जो औद्देशिक आहार तैयार होता है वह भी आप लोगों के परिभोग में-उपभोग में आता है। इस प्रकार गृहस्थों के घर में, उनके पात्र आदि में भोजन करते हुए तथा रुग्ण साधु की गृहस्थों द्वारा सेवा कराते हुए आप अवश्य बीज-सचित धान्य उदक-सचित जल आदि का सेवन करते हैं, औद्देशिक आहार का भोजन करते हैं।
लित्ता तिव्वाभितावेणं, उज्झिआ असमाहिया । नातिकंडूइयं सेयं, अरुयस्सावरज्झती ॥१३॥ छाया - लिप्ताः तीव्राभितापेन, उज्झिता असमाहिताः ।
नातिकण्डूयिंत श्रेयोऽरूषोऽपराध्यति ॥ अनुवाद - आप तीव्र अभिताप से-कठोर कर्मों से लिप्त-बद्ध हैं, उज्जित है-विवेक रहित हैं, और असमाहित है, समाधि रहित हैं । घाव को ज्यादा खुजलाना श्रेयस्कर नहीं होता, क्योंकि ऐसा करने से उसमें दोष पैदा हो जाता है।
टीका - योऽयं षड्जीवनिकायविराधनयोद्दिष्टभोजित्वेनाभिगृहीतमिथ्यादृष्टितया च साधुपरिभाषणेन च तीव्रोऽभितापः-कर्मबन्धरुपस्तेनोपलिप्ताः-संवेष्टि तास्तया 'उज्झिय' त्ति सद्विवेकशून्या भिक्षापात्रादि त्यागात्परगृहभोजितयोद्देशकादिभोजित्वात्तथा असमाहिता'शुभाध्यवसायरहिता:सत्साधुप्रद्वेषित्वात्, साम्प्रतं दृष्टान्तद्वारेण पुनरपि तद्दोषाभिवित्सयाऽऽह-यथा 'अरुषः' व्रणस्याति-कण्डूयितं-नईवि लेखनं न श्रेयो-न शोभनं भवति, अपि त्वपराध्यति-तत्कण्डूयनं व्रणस्य दोषमावहति, एवं भवन्तोऽपि सद्विवेकरहिताः वयं किलनिष्किञ्चना इत्येवं निष्परिग्रहतया षड्जीवनिकाय रक्षणभूतं भिक्षापात्रादिकमपि संयमोपकरणं परिहतवन्तः, तदभावाच्चाश्यंभावी, अशुद्धाहारपरिभोग इत्येवं द्रव्यक्षेत्रकालभावान पेक्षणेन नातिकण्डूयितं श्रेयो भवतीति भावः ॥१३॥
टीकार्थ - छ: कायों के जीवों की विराधना-हिंसा द्वारा आप लोगों के निमित्त भोजन तैयार किया जाता है, वह औद्देशिक आहार है । उसका सेवन करना, आग्रहपूर्वक मिथ्यादृष्टि गृहित किये रहना, साधुओं की निन्दा करना, इन द्वारा आप कर्मबन्ध के रूप में तीव्र अभिताप से-संतप्तता से लिप्त हैं-परिबद्ध हैं । सम्यकज्ञान सेसद्विवेक से रहित है, क्योंकि आप भिक्षा हेतु पात्र नहीं रखते, औरों के घरों में भोजन कर लेते हैं, औद्देशिक आहार का सेवन कर लेते हैं । सत्साधुओं का-संयम नियमानुसार आचरणशील साधुओं के साथ द्वेष करते हैं अतः आप शुभ अध्यवसाय रहित हैं । सूत्रकार उन अन्यमतवादियों के दोष प्रकट करने हेतु दृष्टान्त द्वारा कहते हैं, जिस प्रकार व्रण-घाव को ज्यादा खुजलाना श्रेयस्कर नहीं होता, क्योंकि वैसा करने से घाव में खराबी पैदा हो जाती है, आप लोग सद्ज्ञान-यथार्थ विवेक से विवर्जित हैं, यह परूपणा करते हैं कि हम परिग्रह रहित हैं, अकिंचन हैं, कहते तो ऐसा है पर छ: काया के जीवों की रक्षा के निमित्त साधन स्वरूप भिक्षा पात्र आदि का भी जो संयममय जीवन के उपकरण है, त्याग कर देते हैं, इस तरह संयमोपकरणों का त्याग करने से अशुद्ध आहार का परिभोग
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