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The **Shri Sutra Kritanga Sutra** states that those who follow the wrong path, the path of false teachings, are far away from the true path. Those who believe in false teachings, those who preach them, and those who follow other doctrines like Jamali, are not far from the wrong path. Only those who are engaged in the true doctrine, the doctrine of **Vitaraga** (free from attachment), practice the true Dharma. They encourage each other to remain steadfast in Dharma and help those who have fallen away from Dharma to return to it.
**Verse 27:**
**Original:**
मा पेह पुरा पणामए, अभिकंखे उवधिं धूणित्तए ।
जे दूमण तेहि णो णया, ते जाणंति समाहि माहियं ॥२७॥
**Translation:**
Do not look back at the objects of the senses that you have experienced in the past. Desire to destroy the **Upadhi** (limiting factor) which is Maya (illusion) and the eight types of Karma. Those who are not attached to the objects of the senses that defile the mind, they know the **Samadhi** (meditation) that is inherent in their true nature.
**Commentary:**
Those who lead beings to suffering or keep them wandering in the cycle of birth and death are called **Pranamaka**. The objects of the senses are called **Pranamaka** because they lead beings to lower realms. One should not remember the objects of the senses that one has experienced in the past, because it leads to great harm. One should not desire to experience them again in the future. One should always contemplate on actions that are beneficial for self-improvement. Why? The scriptures explain that the **Upadhi** is what leads the soul to suffering. The **Upadhi** refers to Maya and the eight types of Karma. The righteous should desire to destroy or eliminate them. Those who are great souls, those who are strong in their self-power, are not attached to the objects of the senses that defile the mind, they do not follow the wrong path, they do not practice the wrong Dharma, and they follow the true path, the path of **Satya Mala** (true Dharma). They know the **Samadhi** or **Dharma Dhyana** (meditation on Dharma) that is inherent in their true nature, which is free from attachment and aversion.
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् कुमार्ग के उपदेश से हटे रहते हैं-दूर रहते हैं । कुप्रावचनिक-मिथ्यादर्शन में विश्वास करने वाले, उसका उपदेश करने वाले, जमाली आदि अन्य सिद्धान्तवादी ऐसे असत्य पूर्ण मार्ग से हटे हुए नहीं हैं-दूर नहीं हैं । उपरोक्त सत्य सिद्धान्त में संप्रवृत्त पुरुष ही यथोक्त धर्म का-वीतरागभाषित धर्म का अनुष्ठान करते हैं, पालन करते हैं। वे एक दूसरे को धर्म में-धर्माराधना में सुस्थिर बने रहने की प्रेरणा देते हैं अथवा धर्म से हटते हुए, गिरते हुए को पुनः धर्म में प्रवृत्त करते हैं ।
मा पेह पुरा पणामए, अभिकंखे उवधिं धूणित्तए ।
जे दूमण तेहि णो णया, ते जाणंति समाहि माहियं ॥२७॥ छाया - मा प्रेक्षस्व पुरा प्रणामकान्, अभिकांक्षेद् उपधिं धूनयितुम् ।
ये दुर्मनसस्तेषु नो नतास्ते जानन्ति समाधिमाख्यात् ॥ अनुवाद - पहले जिन शब्दादि विषयों का भोग किया है, उन्हें याद नहीं करना चाहिये । मायाछलना या प्रवञ्चना एवं आठ प्रकार के कर्मों को अपनी आत्मा से दूर करने की अभिकांक्षा-इच्छा करनी चाहिये। जो व्यक्ति शब्दादि विषयों में जो मन को दूषित-कुत्सित बनाते हैं, आसक्त नहीं है, वे अपने आत्मस्वरूप में विद्यमान, समाधि-उज्जवल ध्यानमय धर्म को जानते हैं।
टीका - किञ्च दुर्गतिं संसारं वा प्रणामयन्ति प्रह्वी कुर्वन्ति प्राणिनां प्रणामकाः शब्दादयो विषयास्तान् पुरा पूर्व भुक्तान् मा प्रेक्षस्व मा स्मर, तेषां स्मरणमपि यस्मान्महते अनर्थाय, ऽनागतांश्च नोदीक्षेत नाकाङ्क्षदिति, तथा अभिकाङ्क्षत् अभिलषेदनारतं चिन्तयेदनुरुपमनुष्ठानं कुर्यात् किमर्थदिति दर्शयति-उपधीयते ढौक्यते दुर्गतिं प्रत्यात्मा येनासावुपधिःमाया अष्टप्रकारं वा कर्म तद् हननान अपनयनायाभिकाङ्केदिति सम्बन्धः, दुष्टधर्मम्प्रत्युपनताः कुमार्गानुष्ठायिन स्तीर्थिकाः यदि वा 'दूमण' त्ति, दुष्टमनः कारिण उपतापकारिणो वा शब्दादयो विषया स्तेषु ये महासत्त्वाः न नताः न प्रह्वीभूताः तदाचारानुष्ठायिनो न भवन्ति ते सन्मार्गानुष्ठायिनो जानन्ति विदत्ति समाधि रागद्वेषपरित्यागरूपं धर्मध्यानञ्च आहितम् आत्मनि व्यवस्थितम्, आ समन्ताद्धितं वा त एव जानन्ति नाऽन्य इति भावः ॥२७॥
टीकार्थ - जो प्राणियों को दुर्गति में डालते हैं या संसार में भटकाते हैं, उन्हें 'प्रमाणक' कहा जाता है । शब्दादिविषय प्रणामक कहे गये हैं, क्योंकि वे ही जीवधारियों को निम्नगति में पहुँचाते हैं, उन्हीं के कारण जीवधारी संसार में चक्कर काटते रहते हैं । जिन विषयों का पहले सेवन किया हो, उन्हें याद नहीं करना चाहिये क्योंकि वैसा करने से बड़ा अनर्थ होता है । वे भविष्य में फिर प्राप्त हों ऐसी अभिलाषा भी नहीं करनी चाहिये। सदैव अनुरूप अनुष्ठान-आत्मोन्नति में उपयोगी कार्यों का चिंतन करना चाहिये । ऐसा क्यो ? इस प्रश्न के समाधान में आगमकार प्रतिपादित करते हैं कि आत्मा जिसके द्वारा दुषित गति में-निम्नगति में जाती है उसे उपधि कहा जाता है । उपधि से माया या आठ कर्मों का संसूचन होता है । साधु उनका हनन-नाश करने की या उन्हें दूर करने की अभिकांक्षा करे, उन्हें मिटाना चाहे । जो महासत्व-आत्मबल के धनी उत्तम पुरुष
वे दष्ट-दोषयक्त धर्म में, कमार्ग पर चलने वाले अन्य मतवादियों में मन को दषित-कत्सित बनाने वाले शब्दादि भोग्य विषयों में आसक्त नहीं रहते । वैसे कर्मों का आचरण नहीं करते तथा सन्मार्ग का. सत्यमलक धर्म का परिपालन करते हैं । वे ही अपनी आत्मा में विद्यमान राग द्वेष परित्यागमूलक समाधि या धर्मध्यान
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