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Knowing that association with worldly beings is like getting stuck in a great big mud, a wise person should avoid contact with them. He should not be proud of the respect and worship he receives, because pride is a subtle, sharp thorn that is very difficult to remove.
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् महयं परिगोव जाणिया जावि य वंदणपूयणा इहं ।
सुहुमे सल्ले दुरुद्धरे विउमंता पयहिज संथवं ॥११॥ छाया - महान्तं परिगोपं ज्ञात्वा याऽपि च वंदनपूजनेह ।
सूक्ष्मे शल्ये दुरुद्धरे विद्वान परिजह्यात् संस्तवम् ॥ अनुवाद - एक मुनि यह जानकर कि सांसारिक प्राणियों के साथ परिचय करना एक प्रकार से महानबड़े भारी कीचड़ में फंसना है । उनके साथ सम्पर्क संसर्ग न जोड़े । अपने वंदन पूजन को जो उसे प्राप्त है, देखकर गर्व न करे क्योंकि गर्व करना एक सूक्ष्म-बारीक शल्य-कांटा है जिसे उद्धृत कर पाना-निकाल पाना बहुत कठिन है।
टीका - पुनरप्युपदेशमधिकृत्याह-'महान्तं, संसारिणां दुस्त्यजत्वान्महता वा संरम्भेण परिगोपणं परिगोपः द्रव्यतः पंङ्कादिः भावतोऽभिष्यङ्ग तं 'ज्ञात्वां' स्वरूपतः तद्विपाकतो वा परिच्छिद्य याऽपि च प्रव्रजितस्य सतो राजादिभिः कायादिभि वन्दना वस्त्रपात्रादिभिश्च पूजना तां च 'इह' अस्मिन् लोके मौनीन्द्रे वा शासने व्यवस्थितेन कर्मोपशमजं फलमित्येवं परिज्ञायोत्सेको न विधेयः, किमिति ? यतो गर्वात्मकमेतत्सूक्ष्मं शल्यं वर्तते, सूक्ष्मत्वाच्च 'दुरुद्धरं' दुःखेनोद्धर्तुं शक्येत, अतः “विद्वान्' सदसद्विवेकज्ञस्तत्तावत् 'संस्तवं' परिचयमभिष्वङ्ग 'परिजह्यात्' परित्यजेदिति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - .
"पलिमंथ महं वियाणिया, जाऽविय वंदणयूयणा इह । सुहुमं सल्लं दुरुद्धरं, तंपि जिणे एएण पंडिए" ॥१॥
अस्य चायमर्थः-साधो: स्वाध्यायध्यानपरस्यैकान्तनिःस्पृहस्य योऽपि चायं परैः वन्दनापूजनादिकः सत्कारः क्रियते असावपि सदनुष्ठानस्य सद्गते ; महान् पलिमन्थो-विघ्नः, आस्तां तावच्छब्दादिष्वभिष्वङ्ग, तमित्येवं परिज्ञाय तथा सूक्ष्म शल्यं दुरुद्धरं च अतस्तमपि 'जयेद्' अपनयेत् पण्डितः ‘एतेन' वक्ष्यमाणेनेति ॥११॥
टीकार्थ - सूत्रकार पुनः उपदेश देने के संदर्भ में प्रतिपादित करते हैं -
सांसारिक प्राणी के लिये परिचय का त्याग करना बहुत ही कठिन है । अतएव यहां परिचय को महान कहा गयाहै अथवा महान संरम्भ के अर्थ में यहाँ 'महत्' शब्द का प्रयोग हुआ है । जो प्राणियों को अपने से ग्रस्त कर लेता है-फंसा लेता है उसे परिगोप कहा जाता है । वह द्रव्य परिगोप व भाव परिगोप के रूप में दो प्रकार का हैं । द्रव्य परिगोप पंक या कीचड़ कहा गया है । सांसारिक प्राणियों के साथ जो परिचय संसर्ग या आसक्त भाव रखा जाता है, उसे भाव परिगोप कहा जाता है । मुनि इसकी वास्तविकता को हृदयंगम कर इसका परित्याग करे । प्रव्रजित-दीक्षित साधनारत् मुनि को राजा, सामन्त आदि देह आदि से वन्दन करे, प्रणमन करे, वस्त्र तथा पात्र द्वारा सम्मान करे-सत्कार करे, मुनि जो भगवान वीतराग के धर्मशासन में अवस्थित है-यह माने कि यह उसके कर्मों के उपशम का फल है । जिसके परिणाम स्वरूप इस संसार में सम्मान आदि प्राप्त हो रहे हैं । अत: वह उनका गर्व-अभिमान न करे । गर्व क्यों न करे ? ऐसा सवाल उठाकर इसे पुनः स्पष्ट किया जाता है-क्योंकि गर्व एक ऐसा सूक्ष्म तीक्ष्ण कांटा है कि उसे उद्धृत कर पाना-निकाल पाना बहुत कठिन है । इसलिये जो मुनि सत् असत् के विवेक से युक्त है कभी संस्तव-प्रशस्ति, मान सम्मान प्राप्त कर घमंड न करे । नागार्जुनीय वाचना में इस गाथा के स्थान पर 'पलिमंथ' इत्यादि गाथा पढ़ी जाती है । उसका अभिप्राय यह है कि-विवेकशीलपुरुष जो सर्वथा स्पृहा-आकांक्षा से वर्जित हो, स्वाध्याय परायण और ध्यानानुरक्त
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