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________________ २२९ अब इसको अधोलोक के चार राजू चौड़े और सात राजू ऊंचे खंड के साथ संयुक्त कर दिया जाये तो चारों दिशाओं में ऊंचाई, मोटाई सात राजू होगी। तब उसका आकार इस प्रकार होगा इस प्रकार लोक सात घन रूप सिद्ध होता है। इस घनाकार लोक में ऊंचाई, चौड़ाई और मोटाई तीनों सात-सात राजू हैं, अतः इन तीनों संख्याओं का परस्पर गुणा करने पर लोक का घनक्षेत्र ७४७४७-३४३ राजू प्रमाण होता है। क्योंकि गणितशास्त्र के अनुसार समान दो संख्याओं का आपस में गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न होती है, वह उस संख्या का राजू वर्ग कहलाती है, जैसे ७ का वर्ग करने पर ४९ आते हैं तथा समान तीन संख्याओं का परस्पर में गणा करने पर घन होता है, जैसे ७४७४७=३४३ । लोक तो यद्यपि वत्त (गोल) है और यह धन समचतुरस्र रूप होता है। अतः वृत्त करने के लिये उसे १९ से गणा करके २२ से भाग देना चाहिये, तब यह कुछ कम सात राजू लंबा, चौड़ा और मोटा होता है, किन्त व्यवहार में सात राजू का समचतुरस्र घनाकार लोक जानना चाहिये। १४. असत्कल्पना द्वारा योगस्थान का स्पष्टीकरण दर्शक प्रारूप (गाया ६ से ९ तक) १. प्रत्येक जीव के आत्मप्रदेश असंख्यात (लोकाकाश प्रदेश प्रमाण) हैं। जीव यद्यपि कर्मजन्य अपने देहप्रमाण दिखता है, लेकिन अपने संहरण-विसर्पण (संकोच-विस्तार) गुण की अपेक्षा देहप्रमाण होते हए भी लोकाकाश के बराबर हो सकता है। जैसे कि दीपक को एक घड़े में रखें तो उसका प्रकाश घड़े प्रमाण ही रहता है और कमरे अथवा उससे बड़े मैदान में रखें तो उसमें उसका प्रकाश व्याप्त हो जाता है। इसी प्रकार जीव के भी असंख्यात प्रदेशों को लोकाकाश में व्याप्त होने को समझ लेना चाहिये। परन्तु प्रस्तुत में असत्कल्पना से १२००० प्रदेश मान लें। २. गाथा ६ में बताया गया है कि प्रत्येक अत्मप्रदेश पर जघन्य से असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण वीर्याविभाग होते हैं और उत्कृष्ट से भी। असत्कल्पना से जघन्य एक करोड़ एक और उत्कृष्ट से अनेकों करोड़ मान लें। ३. गाथा ७ में कहा है कि जघन्य वीर्याविभाग वाले आत्मप्रदेश घनीकृत लोक के असंख्यात भागवर्ती असंख्यात प्रतरगत प्रदेशराशि प्रमाण होते हैं। परन्तु यहां असत्कल्पना से उन जघन्य वीर्याविभाग वाले आत्मप्रदेशों का धनीकृत लोक के असंख्येय भागवर्ती असंख्येव प्रतरगत प्रदेशराशि का प्रमाण ७०० मान लिया जाये। ४. गाथा ८ में कहा है कि श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्गणाओं का एक स्पर्धक होता है। परन्तु यहां असत्कल्पना से चार वर्गणाओं का एक स्पर्धक मानना चाहिये।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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