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कर्मप्रकृति
क्रम परावर्तमान शुभ प्रकृति के
प्रमाण
क्रम परावर्तमान अशुभ प्रकृति के
प्रमाण
संख्यात गुण उनसे
१. चतुःस्थानक रसबंधक जीव २. त्रिस्थानक रसबंधक जीव ३. द्विस्थानक रसबंधक जीव
अल्प, . उनसे ४. द्विस्थानक रसबंधक संख्यात गुण , ५. चतुःस्थानक रसबंधक , , , ६. त्रिस्थानक रसबंधक
विशेषाधिक ,
ཐ་མ་བ་ ་
इस प्रकार से बंधनकरण का समग्र विचार करने के पश्चात उपसंहार करते हुए कहते हैं
एवं बंधणकरणं, परुविए सह हि बंधसयगेणं ।
बंधविहाणाहिगमो, सुहमभिगंतुं लहुं होइ ॥१०२॥ शब्दार्थ-एवं-इस प्रकार से, बंधणकरणे बंधनकरण की, परूविए-प्ररूपणा करने पर, सह-साथ, हि-निश्चितरूप, बंधसयगेणं-बंधशतक के साथ, बंधविहाण-बंध का विधान, अहिगमो-अवबोध, ज्ञान, सुहुमभिगंतु-सुखपूर्वक (सरलता से) जानने के इच्छुक को । लहु-शीघ्र, होइ-होता है ।
गाथार्थ-इस प्रकार से बंधशतक के साथ बंधनकरण की प्ररूपणा करने पर सरलता से जानने के इच्छुक को बंधविधान का ज्ञान सुखपूर्वक शीघ्र प्राप्त होता है ।
विशेषार्थ--पूर्वोक्त प्रकार से इस बधनकरण की बंधशतक नामक ग्रंथ के साथ प्ररूपणा करने पर (इस कथन के द्वारा ग्रंथकार ने बंधशतक और इस कर्मप्रकृति, इन दोनों ग्रंथों का एक कर्तृत्व प्रगट किया है, ऐसा जानना चाहिये) बंधविधान जो पूर्वगत है, उसको सरलतापूर्वक जानने के इच्छुक भव्य जीव को बंधविधान का ज्ञान शीघ्र हो जाता है । ...
इस प्रकार बंधनकरण का विवेचन समाप्त हुआ।