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________________ बंधनकरण २०५ क्रम प्रकृतियों का रसयव मध्य से नीचे के या ऊपर के स्थितिस्थानादिकों का अल्पबहुत्व १६. अशुभ परावर्तमान चतुः स्थानक नीचे के...... स्थितिस्थान . संख्यातगुण १७. डायस्थिति (अप.) १८. - अन्तःकोडाकोडी सागर के समय , उपर्यपरि . साकार० स्थितिस्थान उत्कृष्ट स्थिति १९. शुभ परावर्तमान द्विस्थानक २०. " २१. अशुभ परावर्तमान -- २२. , - बद्धडायस्थिति विशेषाधिक उत्कृष्ट स्थिति रसबंध में जीवों का अल्पबहुत्व अब पूर्वोक्त रसबंध में जीवों का अल्पवहुत्व बतलाते है-- संखेज्जगुणा जीवा, कमसो एएसु दुविहपगईणं । असुभाणं तिढाणे सव्वुर विसेसओ अहिया ॥१०१॥ .. शब्दार्थ--संखेज्जगणा-संख्यात गुण, जीवा-जीव, कमसो-अनुक्रम से, एएसु-इन रसस्थानों में, दुविहपगईणं-दोनों प्रकार की प्रकृतियों का, असुभाणं-अशुभ प्रकृतियों का, तिटाणे-विस्थानिक में, सव्वुवरि-सबसे ऊपर, विसेसओ-विशेष से, अहिया-अधिक । धिक 1 .. .. -: गाथार्थ--दोनों प्रकार (शुभ और अशुभ) की प्रकृतियों के इन रसस्थानकों में जीव क्रम से संख्यात गुणित होते हैं। किन्तु सवसे ऊपर अशुभ प्रकृतियों के त्रिस्थानक में जीव विशेषाधिक होते हैं। विशेषार्थ--परावर्तमान शुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानक रसबंधक जीव सवसे कम होते हैं। उनसे त्रिस्थानक रसबंधक जीव संख्यात गुणित होते हैं । उनसे भी द्विस्थानक रसबंधक जीव संख्यात गुणित होते हैं । उनसे भी परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों के द्विस्थानक रसबंधक जीव संख्यात गुणित होते हैं। उनसे भी चतुःस्थानक रसर्वधक जीव संख्यात गुणित होते हैं। उनसे भी त्रिस्थानक रसबंधक जीव विशेषाधिक होते हैं। जैसा कि गाथा में कहा है--'असुभाणं. . . .' इत्यादि । अर्थात् अशुभ प्रकृतियों के विस्थानक रस के बंधक जीव सवसे ऊपर विशेषाधिक कहना चाहिये । सरलता से समझने के लिये इस कथन का स्पष्टीकरण निम्नलिखित प्रारूप में किया जाता है--
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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