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मोरपिच्छ गिर जानेसे आपने 'गृद्धपिच्छोंकी पींछी अंगीकार की थी। अतः आपको लोग गृध्रपिच्छाचार्यसे भी जानते थे।
भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव शक संवतकी पहली शताब्दीके विद्वान थे। आपका गिरनार सिद्धक्षेत्र पर श्वेताम्बर साधुओंसे वाद हुआ था व उसमें आपने दिगम्बर जिनधर्मको प्राचीन व सत्य सिद्ध किया था।
दिगम्बर जैन ग्रंथोंमें भगवान कुंदकुंदाचार्य रचित ग्रंथ अपना अलग प्रभाव रखते हैं। उनकी वर्णन शैली ही इस प्रकारकी है, कि पाठक उससे वस्तुस्वरूप, आत्मा और आत्मानुभवको बड़ी सरलतासे ग्रहण कर लेते हैं। व्यर्थक विस्तारसे रहित, नपे-तुले शब्दोंमें किसी बातको कहना इन ग्रंथोंकी विशेषता है। भगवान कुंदकुंदाचार्यकी वाणी सीधी हृदय पर असर करती है।
निम्नांकित ग्रंथ भगवान कुंदकुंदाचार्य द्वारा रचित निर्विवाद रूपसे माने जाते हैं तथा जैन समाजमें उनका सर्वोपरि स्थान है। १. समयसार, २. प्रवचनसार, ३. नियमसार, ४. पञ्चास्तिकायसंग्रह, ५. दर्शन-पाहुड, ६. सूत्रपाहुड, ७. चारित्रपाहुड, ८. बोधपाहुड, ९. भावपाहुड, १०. मोक्षपाहुड, ११. लिंगपाहुड, १२. शीलपाहुड, आदि ८४ पाहुड १३. वारसअणुपेक्खा, १४. भक्तिसंग्रह, १५. १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्म (षखंडागम टीका), तथा रणयसार ग्रंथ भी आपका माना जाता है।
भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवने ११ वर्षकी उम्रमें भगवती जिनदीक्षा ली थी। ३३ वर्ष पश्चात् शक सं. ४९ (ई.स. १२७) पोष कृ. ८को भगवान जिनचन्द्रस्वामी आचार्यदेवने चतुर्विध संघकी उपस्थितिमें आचार्यपदवीसे आपको अनुगृहीत किया था। पश्चात् वे ५१ वर्ष १० मास तक विराजित रहे। आपकी कुल आयु ९५ वर्ष, १० मास व १५ दिनकी थी। अतः आपका काल ई.स. १२७-१७९ माना जाता है।
विदेहक्षेत्रमें साक्षात कंदकंदाचार्यके दर्शन करनेवाले राजपुत्र फतेहमंदकुमार भरतमें पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीके रूपमें पधारे । उनको आपके समयसार शास्त्रकी ऐसी असर हुई, कि समयसार मिलनेकी अल्पावधिमें ही उन्होंने निर्मल स्वानुभूति प्राप्त की। इतना ही नहीं, आपके ग्रंथों पर पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीने किए प्रवचनोंकी अद्भुत असरसे, समग्र भारतवर्षका जैन समाज यत् किंचित् अपने पुरुषार्थ अनुसार आत्म-हितमें रुचिवंत बन रहे हैं। यह सब भगवान कुन्दकुन्ददेवका ही उपकार है। भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवके ही धर्मतीर्थको कहानगुरुने चेतनवंत बनाया। ऐसे महासमर्थ भावलिंगत्वके तादृश स्वरूप भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवको कोटि कोटि वंदना।
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