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कोई पूर्वभवके मित्रदेव भरतमें आये थे। मद्राससे ८० माईल दूर पोन्नूर पर्वत है। वहाँ भगवान कुंदकुंदाचार्य ध्यानमें बैठे थे। देव उन्हें सीमंधर भगवानके समवसरणमें ले जाते हैं।
___ अन्य स्थल पर ऐसा भी आता है, कि पुण्य और पवित्रतामें समृद्ध ऐसे भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवको प्रकट हुई आकाशगामिनी ऋद्धिसे वे सीमंधर भगवानके समवसरणमें गये थे। तब चक्रवर्तीने विस्मयतासे भगवानको पूछा, कि हे नाथ! 'छोटेसे देहयुक्त दिगम्बर मुनिराज ऐसे 'वे कौन हैं?' लोग उन्हें देख ही रहे थे, उस समय प्रभुकी ध्वनिमें आया, कि 'ये भरतक्षेत्रके समर्थ आचार्य हैं।' ऐसा सुनकर जयघोष सह नगरीमें उत्सव हुआ। सप्ताहभर प्रभुके श्रीमुखसे विनिर्गत दिव्यध्वनि श्रवण करके शुद्धात्मतत्त्व आदि सारभूत अर्थोंको ग्रहण व अवधारित करके आप भरतमें वापस आए। वहाँ श्रवण की हुई दिव्यध्ननिकी खुमारमें आपने प्रवचनसारादि ग्रंथोंमें उन सारभूत तत्त्वोंको ठुस-ठुसकर भव्योंके लिए भर दिये। ऐसे ही भाव भगवान जयसेनाचार्यदेवने उनकी टीका ग्रंथमें लिखें हैं।
आचार्य शुभचन्द्रजीने गुर्वावलिके अतमें लिखा है, कि श्री कुंदकुंदाचार्यदेवने ऊर्जयन्तगिरिमें पाषाण निर्मित सरस्वतीकी मूर्तिको वाचाल कर दिया था, जिससे आपके गच्छका नाम 'सारस्वत' अर्थात् 'सरस्वती गच्छ' पड़ा था। चार अंगुल पर आकाशगमनकी ऋद्धि आपको प्राप्त थी। ऐसा शिलालेखों आदिमें आता है।
___भगवान जयसेनाचार्यदेवानुसार आप कुमारनन्दि सिद्धान्तिदेवके शिष्य थे। उस परसे ऐसा भी लगता है, कि कुमारनन्दि सिद्धान्तिदेव आपके विद्यागुरु-दीक्षागुरु हो व भगवान जिनचन्द्रस्वामीने आपको आचार्यपदवीसे सुशोभित किया हो।
____ 'पद्मनंदी, कुंदकुंदाचार्य, एलाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, और गृध्रपिच्छाचार्य' इन पाँच नामोंसे आप युक्त थे। पद्मनंदी आपका दीक्षाका नाम है। आचार्य इन्द्रनन्दीने आचार्य पद्मनन्दीको कुण्डकुन्दपुरका बतलाया है। श्रवणबेलगोलाके कितने ही शिलालेखोमें आपका कोण्डकुन्द नाम लिखा है। गुण्टकल रेलवे स्टेशनसे दक्षिणकी ओर लगभग ८ कि. मी. पर एक कोनकुण्डल नामका स्थान है, जो अनन्तपुर जिल्लेके गुटी तालुकेमें स्थित है। शिलालेखमें उसका प्राचीन नाम 'कोण्डकुन्दे' मिलता है। यहाँके निवासी इसे आज भी 'कोडकुन्दी' कहते हैं। बहुत कुछ संभव है, कि कुंदकुंदाचार्यका जन्मस्थान यही हो और इसी कारण आपका नाम 'कुंदकुंद'रूपसे प्रसिद्ध है। श्री कुंदकुंदाचार्यदेव विदेहक्षेत्रमें 'इलायची' जैसे प्रतीत होते थे। अतः आपको लोग एलाचार्य भी कहने लगे। कहा जाता है, कि शास्त्र लिखते समय आपकी ग्रीवा थोड़ीसी टेढ़ी हो गई थी, अतः लोग आपको वक्रग्रीवाचार्य भी कहते थे तथा ऐसा आता है, कि विदेह जाते समय
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