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भगवान आचार्यदेव श्री वट्टकेरस्वामी
__ भगवान महावीरस्वामीके पश्चात् हुए महान आचार्योंमें भगवान आचार्यदेव वट्टकेरस्वामी भी अपने एक मात्र ग्रंथ 'मूलाचार'की रचनासे प्रसिद्ध हैं।
आचार्यदेव वसुनन्दिकी संस्कृत टीकाके आधार पर आपका नाम 'वट्टकेर', 'वट्टकेय', 'वट्टरेक' आदिके रूपमें उल्लखित हैं। यद्यपि आपका इन नामोंमेंसे कोई भी नाम किन्हीं पट्टावलियों या गुर्वावलियों आदिमें उपलब्ध नहीं है, फिर भी आचार्यदेव वसुनन्दिके मतानुसार आपका नाम वट्टकेरस्वामी स्पष्टरूपसे ऊभरकर आता है।
__आपकी रचना 'मूलाचार'की कई गाथायें श्वेताम्बर ग्रंथ उत्तराध्ययन व दशवैकालिकमें मिलती है, इस परसे यह सिद्ध होता है, कि यह 'मूलाचार' ग्रंथ प्राचीन है, क्योंकि जिस समय ऐसा काल था, कि मुनि आचारादि संबंधित बहुत कुछ विचारधारा जो दिगम्बर आचार्योंकी थी, वही श्वेताम्बर आचार्योंको भी इष्ट थी, क्योंकि दोनों संप्रदायोंको अलग-अलग हुए बहुत समय नहीं हुआ था।
__ आपका नाम किन्हीं पट्टावलियोंमें नहीं प्राप्त होनेसे, व गाथाओंकी भाषाशैली आदिके आधारसे कुछ विद्वानोंका यह मत है, कि आचार्यदेव ‘वट्टकेरस्वामी' अन्य कोई आचार्य नहीं है, पर हमारे महान आचार्य भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव ही हैं। जो भी हो पर इस परसे यह सिद्ध होता है, कि उक्त 'मूलाचार' ग्रंथ अति प्राचीन, व महान ग्रंथ है।
इस ग्रंथमें मुनि भगवंतोंके आचारोंका सुंदर विवेचन किया है। मुनि भगवंतोंका प्रमाणभूत आचार-वर्णन इस ग्रंथ जैसा अन्य ग्रंथोंमें नहीं प्राप्त होता है।
इस ग्रंथमें 'भावलिंग विहिन द्रव्यलिंग लेनेका' निषेध बहुत ही भाववाही शब्दोंमें कहा गया है, जिसका पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कई बार उद्दहरण देते थे। अतः 'भावविहिन क्रिया' तनिक भी कार्यकारी नहीं है, अतः भावलिंग ही ग्रहण करना मुमुक्षुको कार्यकारी है। आप भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवके ही समयमें अर्थात् ई.स. १२७-१७९के आचार्य हों, ऐसा विद्वानोंका मत है। आचार्यदेव वट्टकेरस्वामी भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
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