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उक्त दोनों उल्लेखों परसे आर्यमंक्षु और नागहस्तिके व्यक्तित्वके सम्बन्धमें निम्नलिखित निष्कर्ष फलित होते हैं- १. ये दोनों आचार्य सिद्धांतके मर्मज्ञ थे। २. श्रुतसागरके पारगामी थे। ३. सूत्रोंके अर्थव्याख्याता थे। ४. गुप्ति, समिति और व्रतोके पालनमें सावधान तथा परिषह और उपसर्गोको सहन करनेमें पटु थे। ५. वाचक और प्रभावक भी थे। ६. आप उभय उपकारी सन्तोंका उस समय ऐसा अपूर्व प्रभाव होगा, कि आप स्वयं दिगम्बर आम्नायी आचार्य होने पर भी श्वेताम्बर आम्नायके साधुगण भी आपको सन्मानसे देखते थे।
___ जयधवलाके कुछ उल्लेखोंसे यह भी प्रतीत होता है, कि आचार्य आर्यमंक्षु व आचार्य नागहस्ति दोनों विभिन्न गुरुसंप्रदायके आचार्य होनेसे कुछ विषयों पर दोनोंके मत भिन्नभिन्न थे।
ग्रंथ धवला और जयधवलामें आचार्यवर आर्यमंक्षु और नागहस्तिका उल्लेख जिस क्रममें आया है। उससे यह भी ध्वनित होता है, कि आर्यमंक्षु नागहस्तिसे ज्येष्ठ गुरुभ्राता थे। इसलिये उनका नाम प्रथम रखा गया है और नागहस्तिका पश्चात्। पुन्नाटसंघकी गुर्वावलीके अनुसार आचार्यवर नागहस्ति आचार्यवर व्याघ्रहस्तिके शिष्य व आचार्य जितदण्डके गुरु थे।
इतिहासकारोंनुसार आचार्य आर्यमंक्षुके शिष्य आचार्य यतिवृषभ थे। यतिवृषभ आचार्य, आचार्य नागहस्तिके अंतेवासी थे। इतिहासकारों अनुसार आचार्य आर्यमंक्षु व आचार्य नागहस्तिका काल क्रमशः वी.नि. ६००-६५० अर्थात् ई.स. ७३ से १२३ व वी.नि. ६२० से ६८७ अर्थात् ई.स. ९३ से १६२ माना जाता है।
आचार्यदेव आर्यमंक्षु व नागहस्ति भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
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