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भगवान आचार्यदेव
श्री जिनचन्द्रस्वामी
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आचार्य अर्हद्बलि तक भगवान महावीरका शासन मूलसंघके रूपमें अक्षुण्ण चलता रहा व उनके गुरु लोहाचार्य तक तो अंगश्रुतज्ञानका प्रवाह चलता रहा, बादमें अंगके कुछकुछ अंशोंका ज्ञान रहा। इस तरह आचार्य अर्हद्बलिके काल तक में मुनि भगवंतोके श्रुतज्ञानकी क्रमशः हानि होते जानेसे यतियोंमें कुछ पक्षपातकी गंध देखकर, पक्षपाती थ समाप्त करने हेतु, अर्हद्बलि आचार्यने पंचवर्षीय युग-प्रतिक्रमणके समय नन्दिसंघ आदि संघोकी स्थापना की थी । उसमें नन्दिसंघके प्रथम आचार्य माघनन्दीके शिष्यके रूपमें आचार्य जिनचंद्रजीका नाम आता है। वैसे तो जिनचन्द्र नामक कई आचार्य हुए हैं, पर उनमें से सर्वोच्च नाम आचार्य माघनन्दिके शिष्य जिनचन्द्रजीका है।
आपके कालमें ही श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी एक जिनचन्द्र साधु भी हुए हैं, पर ये इनसे भिन्न हैं। आप बहुश्रुत पारगामी थे । आपके विषयमें विशेष कोई जानकारी नहीं है, न आपका रचित कोई शास्त्र उपलब्ध है । पर आप भगवान कुन्दकुन्दाचार्यके गुरु होनेसे व नन्दिसंघकी पट्टावलिमें उग्र तपश्चर्यावंत तपस्वीके रूपमें आपका नाम बड़े आदरसे लिया गया है। आप वी. नि. ६१४ से ६५४ (ई.स. ८७ - १२७ ) के अरसेमें वीरप्रभुके समीचीन शासनको चन्द्रकी भाँति उद्योत फैलानेवाले होनेसे आपका 'जिनचन्द्र' - नाम सार्थक था । सकल संघ में आप अपने गुरु माघनन्दि आचार्यके अत्यंत विश्वासपात्र थे। अतः माघनन्दि आचार्यने स्वयं अपने हाथोंसे वी. नि. ६१४ (ई.स. ८७ ) में आपको संघके पट्ट पर आसीन कर दिया व आपका संघ आपकी छत्र-छायासे ज्ञान व चारित्रमें उन्नत होने लगा। इस घटना के कुछ वर्ष पश्चात् ही ११ वर्षकी छोटी उम्र में भगवान कुन्दकुन्ददेवने आपसे दीक्षा धारण की।
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वैसे पट्टावलीयों अनुसार आपका काल वी. नि. ६१४ - ६५४ (ई.स. ८७ - १२७) इतिहासकार मानते हैं। जो कुछ भी हो, आप ई. स. १२७के पूर्वके आचार्य हैं।
आचार्य कुन्दकुन्ददेवके दाता श्री जिनचन्द्राचार्य
भगवंतको कोटि कोटि वंदन ।
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