________________
उन ( मंत्रों ) को सुधारकर पुनः साधना की, जिससे देवियाँ अपने स्वाभाविक सौम्यरूपमें प्रकट हुई। उनकी इस कुशलतासे गुरुने जान लिया, कि ये दोनों सिद्धान्त सिखानेके योग्य पात्र हैं। फिर उन्हें क्रमसे सब सिद्धान्त पढ़ा दिया । यह श्रुताभ्यास आषाढ़ शुक्ला एकादशीको समाप्त हुआ। उसी समय देवोंने पुष्पोपहारों द्वारा, शंख, तूर्य और वादित्रोंकी ध्वनिके साथ आचार्य नरवाहनकी बड़ी पूजा की। इसीसे आचार्यश्रीने उनका नाम भूतबलि रखा। दूसरी ओर आचार्य सुबुद्धिकी दंतपंक्ति अस्तव्यस्त थी, उसे देवोंने ठीक कर दी, इससे उनका नाम पुष्पदंत रक्खा गया। ये दो आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि षट्खंडागमके रचयिता हुए ।
आचार्य पुष्पदंतजीने गुरुसे ज्ञान प्राप्त करके अपने सहधर्मी भूतबलिजीके साथ, धरसेन गुरुकी आज्ञा अनुसार उनसे विनयपूर्वक विदा लेकर आषाढ़ शु० ११ को पर्वतसे नीचे आ गए और वहाँसे निकट अंकलेश्वरमें चतुर्मास किया । चातुर्मास दरमियान दोनों आचार्योंने आपसमें उपदेशकी बहुत गंभीर चर्चा कर उपदेशको अवगाहन किया । अंकलेश्वर चातुर्मास
જયદેવ
आचार्य पुष्पदंत व भूतबलिजी गुरुआज्ञानुसार गिरनारसे रवाना हो अंकलेश्वर जा रहे हैं
KINAWA
(60)
(Bani)