________________
తిబిం
श्रामण्यपर्यायके सहकारी कारणभूतपनेसे देहमात्र परिग्रह होता है। प्रतिबंध - रहित सहज दशा होती है; शिष्योंको बोध देनेका अथवा ऐसा कोई भी प्रतिबंध नहीं होता । स्वरूपमें लीनता वृद्धिंगत होती है ।।
अखण्ड द्रव्यको ग्रहण करके प्रमत्त- अप्रमत्त स्थितिमें झूले वह मुनिदशा । मुनिराज स्वरूपमें निरंतर जागृत हैं, मुनिराज जहाँ जागते हैं, वहाँ जगत सोता है, जगत जहाँ जागता है, वहाँ मुनिराज सोते हैं। 'निश्चयनयाश्रित मुनिवरो, प्राप्ति करे निर्वाणनी' ||
समाधिपरिणत मुनिराज हैं वे ज्ञायकका अवलंबन लेकर विशेष - विशेष समाधिसुख प्रकट करनेको उत्सुक हैं। मुनिवर श्री पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं, कि मुनि 'सकलविमल केवलज्ञान-दर्शनके लोलुप' हैं। 'स्वरूपमें कब ऐसी स्थिरता होगी, जब श्रेणी लगाकर वीतरागदशा प्रकट होगी ? कब ऐसा अवसर आयेगा, जब स्वरूपमें उग्र रमणता होगी और आत्माका परिपूर्ण स्वभावज्ञान - केवलज्ञान प्रगट होगा ? कब ऐसा परम ध्यान जामेगा, कि आत्मा शाश्वतरूपसे आत्मस्वभावमें ही रह जायगा ?" ऐसी भावना मुनिराजको वर्तती है। आत्माके आश्रयसे एकाग्रता करते-करते, वे केवलज्ञानके समीप जा रहे हैं । प्रचुर शान्तिका वेदन होता है। कषाय बहुत मन्द हो गया है। कदाचित् कुछ ऋद्धियाँ - चमत्कार भी प्रकट होते जाते हैं; परन्तु उनका उनके प्रति दुर्लक्ष्य है । 'हमें ये चमत्कार नहीं चाहिये। हमें तो पूर्ण चैतन्यचमत्कार चाहिये। उसके साधनरूप, ऐसा ध्यान – ऐसी निर्विकल्पता – ऐसी समाधि चाहिये, कि जिसके परिणामसे असंख्य प्रदेशोंमें प्रत्येक गुण उसकी परिपूर्ण पर्यायसे प्रकट हो, चैतन्यका पूर्ण विलास प्रकट हो ।' इस भावनाको मुनिराज आत्मामें अत्यन्त लीनता द्वारा सफल करते हैं ।।
सभी मुनिभगवंतोंका ऐसा स्वरूप होता है ।
उनमें से आचार्यदेवका सामान्य स्वरूप कहते हैं, कि वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य नामक पांच आचारोंसे परिपूर्ण; स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत नामकी पाँच इन्द्रियोंरूपी मदांध हाथीके दर्पका दलन करनेमें दक्ष, समस्त घोर उपसर्गों पर विजय प्राप्त करते हैं । अतः गुणगंभीर ऐसे लक्षणोंसे लक्षित आचार्य भगवंत होते हैं ।।
जो पंचाचार परायण हैं, अकिंचनताके स्वामी हैं, जो ज्ञायकभावकी लब्ध या उपयोगरुप अनुभूतिसे सकल वीतराग चारित्रवंत होते हैं । जो महा पंचास्तिकायकी स्थितिको समझाते हैं, विपुल अचंचल योगमें जो स्थिर हैं, जिनके गुण उछलते हैं, आचार्योंकी
(12)