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शंका :-मुनिदशामें वस्त्र हों तो आपत्ति क्या है ? वस्त्र तो परवस्तु हैं, वे कहाँ आत्माको बाधक होते हैं ?
समाधान :-वस्त्र तो परवस्तु है और वे कहीं आत्माको बाधक नहीं है, यह बात तो सच है; परन्तु वस्त्र ग्रहण करनेकी जो बुद्धि है, वह रागमय बुद्धि ही मुनिदशाको रोकनेवाली है। अन्तरंग रमणता करते-करते मुनियोंको इतनी उदासीन दशा सहज ही हो व जाती है, कि वस्त्र ग्रहण करनेका विकल्प ही नहीं उठता।
अहो! धन्य वह मुनिदशा! मुनिराज कहते हैं, कि हम तो चिदानन्दस्वभावमें झूलनेवाले हैं, हम इस संसारके भोगके लिए अवतरित नहीं हुए हैं। हम तो अब अपने ins आत्मस्वभावकी ओर झुकते हैं। अब हमारा स्वरूपस्थित होनेका समय आ गया है। अन्तरके आनन्दकन्दस्वभावकी श्रद्धा सहित, उसमें रमणता करने हेतु जागृत हुए, उस भावमें अब भंग नहीं पड़ेगा। अनन्त तीर्थंकर जिस पथ पर विचरे उसी पथके हम पथिक हैं।
मुनिको कोई क्रम-प्रक्रम नहीं होता—मुनि किसी कार्यका भार सिरपर नहीं लेते। 'पाठशालाका ध्यान रखना पड़ेगा; चन्दा इकट्ठा करनेके लिए तुम्हें जाना पड़ेगा; तीर्थके लिए पैसा लाना होगा।'—ऐसे किन्हीं भी कार्योकी जिम्मेवारी, मुनि अपने सिर पर नहीं लेते। किसी प्रकारका बोझ, मुनि सिरपर नहीं रखते।
मुनिराजको चलते-फिरते, खाते-पीते चैतन्यपिण्ड पृथक् हो जाता है और वे अतीन्द्रिय आनन्दामृतरसका वेदन करते हैं। नींदमें भी उन्हें क्षणभर झपकी आती है और क्षणभर - जागते हैं; क्षणभर जागते हैं, तब उनके अप्रमत्तध्यान हो जाता है, सहजरूपसे स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। इस प्रकार मुनिराज बारम्बार प्रमत्त-अप्रमत्तदशामें झूलते रहते हैं। ऐसी मुनिराजकी निद्रा है; वे सामान्य मनुष्योंकी भांति घण्टों तक निद्रामें घोरते(गहरी नींद) नहीं रहते। मुनिराज अंतर्मुहूर्तसे अधिक काल तक छठवें गुणस्थानमें रहते ही नहीं। मुनिराजको पिछली रात्रिमें क्षणभर झपकी आती है, इसके सिवा उनको अधिक निद्रा ही नहीं आती- व ऐसी उनकी सहज अंतरदशा है।
___ इसी भांति पूज्य बहिनश्री चंपाबहिन भी आचार्यादिका सामान्य स्वरूप बताते हुए कहती हैं, कि
धन्य वह निर्ग्रन्थ मुनिदशा ! मुनिदशा अर्थात् केवलज्ञानकी तलहटी। मुनिको अंतरमें चैतन्यके अनंत गुण-पर्यायोंका परिग्रह होता है; विभाव बहुत छूट गया होता है। बाह्यमें
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