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भगवान आचार्य श्री जयसेनाचार्यदेव (चतुर्थ/पंचम)
भगवान श्री जयसेन आचार्य नामक मूलसंघमें अनेक आचार्य हुए हैं। जैसे :
(१) श्रुतावतारकी पट्टावली अनुसार आप श्रुतकेवली भद्रबाहु (प्रथम) पश्चात् चौथे नंबरके ११ अंग १४ पूर्वज्ञानके धारी जयसेन आचार्य थे। आपका काल वी.नि.सं. पूर्व २६८-२८९ गिना जाता
(२) आचार्य श्री जयसेन भगवान कुंदकुंदाचार्यके पट्टशिष्य थे। जिन्हें कुंदकुंदआचार्यदेवने 'प्रतिष्ठा-पाठ' लिखनेकी आज्ञा दी, जिसे शिरोधार्य करके दो दिनमें 'प्रतिष्ठा-पाठ' पूर्ण करनेसे आपको आचार्यवरने 'वसुबिन्दु' (आठ कर्मको शून्य करनेवाले) नामसे भी घोषित किया। आपका संक्षिप्त शब्दोंमें व गंभीरता लिये हुए एक मात्र ‘प्रतिष्ठा-पाठ' ग्रंथ प्रतीत होता है। आपका समय ई.स. १२७ से १७९के आसपास होना प्रतीत होता है।
(३) पुनाटसंघीय आचार्य जयसेनजीके बारेमें हरिवंशपुराणमें लिखा है, कि वे १०० वर्षकी उम्रधारक, सद्गुरु, इन्द्रिय व्यापारजयी, कर्मप्रकृतिरूप आगमके धारक, प्रसिद्ध वैयाकरणी, प्रभावशाली, सम्पूर्ण शास्त्र समुद्रके पारगामी, सैद्धान्तिक विद्याके धारक भावलिंगी सन्त थे।
(४) पुनाटसंघकी गुर्वावली अनुसार शान्तिसेनके शिष्य व अमितसेनके गुरु जयसेनाचार्य थे। आपका काल ई.स. ७२३-७७३ गिना जाता है। यदि ये ही आचार्य पंचस्तूप गुर्वावलीके आचार्य जयसेनजी हों तो उनका समय इस समयके पश्चात्का होना
चाहिए।
(५) पंचस्तूप संघकी गुर्वावली अनुसार आचार्य आर्यनन्दिके शिष्य व धवलाकार आचार्य वीरसेनस्वामीके सहधर्मा जयसेनाचार्य थे। आपका काल ई.स. ७७० से ८२७ था।
हालमें धवलाकार आचार्य श्री वीरसेनस्वामीके सधर्मा आचार्यके बारेमें यहाँ दिया जा
आप बड़े तपस्वी, प्रशान्तमूर्ति, शास्त्रज्ञ, पण्डितजनोंमें अग्रणी भावलिंगी सन्त आचार्यवर थे।
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