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राहे
पावागढ मन्दिरसे धवला टीकाकी शुरूआत करते आचार्य वीरसेनस्वामी धवला व जयधवला टीका पावागढ अर्थात् वटग्रामके जंगलोंमें लिखी गई थी।
आपने अपनी टीकामें ढेर सारे ग्रंथोंके प्रमाण दिए हैं, उससे स्पष्ट होता है, कि आप अत्याधिक आगमप्रिय व आगमाभ्यासी थे।
आपकी रचना शैली शंका-समाधानयुक्त, सरल, स्वच्छ, आडम्बररहित, आगमप्रमाण, अनुभवपूर्ण तर्क व न्यायसे तटस्थतायुक्त थी। नानाप्रकारके विकल्प उठाकर विषयको प्रस्तुत कर अंतमें आप निष्कर्ष निकालते थे। आपने विभिन्न दिशाओंसे तथ्योंका चयनकर उदाहरणों द्वारा अपने पासमें पाठकको शिष्यरूपसे बैठाकर समझाते न हों, इस भांति विषयबोध कराया है। साथमें आपने अपने अभिमतकी पुष्टीके लिए प्रमाणिक व्यक्तियोंके मतोंका उद्धरण भी उपस्थित किया है। अतः आपकी रचना, टीकाग्रन्थ होने पर भी स्वतंत्र रचना होऐसी आपकी अद्भुत रचना शैली थी।
आपका समय ई.स. ७७० से ८२७ तकका माना जाता है। धवला-जयधवला टीकाकार भगवान आचार्य श्री वीरसेन स्वामीको कोटि कोटि वंदन।
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