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जिनेन्द्र भगवानके दर्शन करते हुए श्री जयसेनाचार्य (चतुर्थ/पंचम) इस प्रकार १०० वर्षीय आयुधारक व कर्मप्रकृतिके ज्ञाता, वैयाकरणी व शास्त्रसमुद्रके ज्ञाता आदि विशिष्टताओंसे यह स्ष्ट होता है, कि पुनाटसंघीय व पंचस्तूपीय दोनों आचार्य एक ही हों और वे ही धवलाकार जैसे शास्त्र-समुद्रके पारगामी, वैयाकरणी सिद्धान्तसागरके धारक आचार्य वीरसेनस्वामीके सधर्मा होनेको समर्थ हैं।
यद्यपि आपने कोई शास्त्र नहीं लिखा है, फिर भी आप अमित ज्ञानके सागर व महातपस्वी थे। इतना ही नहीं शास्त्र न लिखनेके बावजूद भी उनके पश्चात्वर्ती आचार्यवर आपको बड़े सन्मानसे स्मरण करनेमें अपना गौरव समझते हैं।
ऐसे अन्तरंग आत्मज्ञानकी विशुद्धदशाके धारी महान तपस्वी, ज्ञान-ध्यानके भंडार आचार्य सदा जयवंत रहें। पुन्नाटसंघीय व पंचस्तूपीय जयसेनाचार्य एक ही हो, उस अनुसार आपका काल ई.स. ७७० से ८२७ होना योग्य प्रतीत होता है। इससे अधिक जानकारी आपके बारेमें हमें प्राप्त नहीं होती।
भगवान श्री जयसेनाचार्य भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
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