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भिक्खु दृष्टांत
१८५. इसा दृढ़धर्मी
विजैचंदजी पटवा ने आसकरण दांती कह्यौ - विजैचंदजी थांरा गुरु भीखणजी कमाड़ खोलने मेड़ी मै ऊतर्या । इम सुणनै विजयचंदजी बोल्या -न ऊतरं ।
जद आसकरण कौ - विजैचंद भाई ! म्हारी प्रतीत तो राख । जद विजयचंदजी बोल्या - थारी प्रतीत पूरी है । तूं झूठा बोल है । इम कहि निषेध दीयौ, पिण साधां नै आयनै पूछीयौई नहीं । पछे आ बात स्वामीजी सुन बोल्या - विजैचंद पटवा रे जाणै क्षायक सम्यक्त्व दीसै है | साधां मैं अनेक दोष लोक कहै है । इण नै सुणावै है, पिण साधां ने पाछौ पूछवारी इज काम नहीं, इसौ दृढधर्मी ।
१८६. मौन निर्गे न पड़ीं
एक दिवस विजैचंदजी आथण रा स्वामीजी कनै सामायक पड़िकमणी करवा आया । बादळां मै दिन दीसै नहीं जद स्वामीजी ने अर्ज करीमहाराज, उदक चुकाय दिरावौ ।
जद स्वामीजी उदक चुकाय दीयौ । पछै तावड़ौ दीठौ दिन घणौ नीलीयो, जद स्वामीजी बोल्या - साधां रै रात रा पांणी पीणौ नहीं, गृहस्थ र रात रा सूंस न हुवै, ते रात्रि ना पिण परहौ पीये | जद विजैचंदजी हाथ जोडने पगां पयौ अने बोल्या - मोटा पुरषां ! आप तो अवसर नां जाण छौ, मोने निर्गे न पड़ी। इसौ साधां रौ वनीत सो पकी नरमाई करी ।
१८७. उपकार ₹ वास्ते
सांमी जी स्वामी ने कह्यौ - हेमजी ! भीखणजी स्वामी म्हां साधां नै तौ हाट मै बैसाणता । कंठ मिलाणवाळा भाया आडा वैसता । परसेवौ घणौ हुतौ । उपकार रै वासते कष्ट रौ अटकाव नहीं, इम स्वामीजी फुरमावता ।
उन्हाले चौमास सरीयारी पकी हाटै बखांण देता, भीखणजी स्वामी भारमलजी स्वामी दोनूं आगे जोड़े विराजता, पाखती कंठ मिलावण-वाळी भायो बैसतो, बीजा साध माहै बैसता । गरमी रौ बड़ौ कष्ट । इण पर परिषह सहिने उपकार कीधौ ।