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वरंगचरिउ
79 स्थानों की मर्यादा बांधकर आजन्म उससे बाहर न जाना और उसके भीतर लेन-देन करना दिग्वत है।'
2. देशावकाशिकव्रत-दिग्व्रत में जीवन पर्यन्त के लिए दिशाओं का परिमाण किया जाता है। इसमें किये गये परिमाण में कुछ समय के लिए किसी निश्चित देश पर्यन्त आने जाने का नियम ग्रहण करना देशावकाशिक व्रत है।
___3. अनर्थदण्डव्रत-प्रयोजन रहित पापबंध के कारणभूत कार्यों से विरक्त होने को अनर्थदण्ड व्रत कहते हैं। बिना प्रयोजन के कार्यों का त्याग करना, अनर्थदंडव्रत कहलाता है। जिनसे अपना कुछ भी लाभ न हो और व्यर्थ ही पाप का संचय होता है तो ऐसे कार्यों को अनर्थदण्ड कहते हैं और उनके त्याग को अनर्थदण्डव्रत कहा जाता है।
शिक्षाव्रत-जिनके प्रभाव से विशेष श्रुतज्ञान का अभ्यास हो या जिससे मुनिव्रत पालन करने की शिक्षा मिले, उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं।'
शिक्षाव्रत चार प्रकार के होते हैं-1. सामायिक, 2. प्रोषधोपवास, 3. अतिथिसंविभाग व्रत, 4. भोगोपभोग परिमाण व्रत।
1. सामायिक-समभाव या शान्ति की प्राप्ति के लिए सामायिक करना चाहिए। समस्त कर्मों से विरत होकर नियत स्थान पर नियत समय के लिए मन, वचन और काय के एकाग्र करने को सामायिक व्रत कहते हैं। वरांचरिउ में सामायिक का प्रतिपादन करते हुए बताया है कि तीनों काल में सामायिक करना चाहिए अथवा दिन में 6-6 घड़ी तक सामायिक करना चाहिए। रइधू कवि ने पासणाह चरिउ में सामायिक का मनभावी विवेचन किया है-"सभी जीवों को मैं नियम से क्षमा करता हूँ, वे भी मुझे प्रसन्न होकर क्षमा करें, ऐसा विचार कर सभी सावध कर्मों का त्याग करें तथा जिन भगवान् के सम्मुख बैठकर निष्कपट भाव से पर्यंकासन मारकर, मन को स्थिर करके और सुखकारी रत्नत्रय का स्मरण कर अपनी शक्ति पूर्वक संकल्प छोड़कर सामायिक करें। ज्ञानी व्यक्ति सिद्ध, बुद्ध, चेतन, पवित्र, अमूर्त, निरंजन एवं निर्दोष आत्मा का भावनापूर्वक ध्यान करें। निश्चय से इसे सामायिक शिक्षाव्रत कहते हैं। जितने समय तक व्रती सामायिक करता है, उतने समय तक वह महाव्रती के समान हो जाता है।
___2. प्रोषधोपवास-पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय से निवृत्त होकर उपवासी नियंत्रित रहें, उसे उपवास कहते हैं। प्रोषध अर्थात् पर्व के दिन उपवास करना प्रोषधोपवास है। सामान्य तौर
1. जैन धर्म की सांस्कृतिक विरासत, पृ. 120 2. रत्नकारण्ड श्रावकाचार, 4/67 3. वही, 5/91 4. वरंगचरिउ, कडवक 1/16 5. रइधू. पास. 5/7/1-6