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वरंगचरिउ करना, मार्ग में पड़े हुए या रखे हुए पर-द्रव्य को नहीं लेना, न उसे दूसरे व्यक्ति को देना, न अपने हाथों से स्पर्श करना, चोरों के समूह में भ्रमण नहीं करना, चोर के साथ व्यापार और स्नेह नहीं करना, न लोभ से उसके घर जाना और मन, वचन, काय से चोर के कार्यों का त्याग देना, अचौर्याणुव्रत है। अचौर्याणुव्रत के पालन करने से लोक और परलोक में सुख की प्राप्ति होती है।' तीसरे व्रत-पर-द्रव्य को ग्रहण नहीं करना चाहिए।'
4. ब्रह्मचर्याणुव्रत-ब्रह्मचर्याणुव्रत का दूसरा नाम स्वदार संतोष' व्रत भी कहा है। मन, वचन और काय से अपनी भार्या के अतिरिक्त शेष समस्त स्त्रियों के साथ विषयसेवन का त्याग करना स्वदार संतोषव्रत है। जिस प्रकार श्रावक के लिए स्वदार संतोषव्रत का विधान है, वैसे ही श्राविका के लिए स्वपति संतोष का नियम है। ब्रह्मचर्य को धारण करना चाहिए जो संसार को तारने वाला है।
5. परिग्रह परिमाण व्रत-धन, धान्य, स्वर्ण, गृह, दासी, दास, ताम्बूल, विलेपन एवं उत्तम सुवास, इनके प्रति लोभ की भावना का त्यागकर, इन वस्तुओं का परिमाण करना परिग्रह परिमाण व्रत है।' अर्थात् संसार के धन, ऐश्वर्य आदि का नियमन कर लेना भी परिग्रह परिमाण व्रत है। गुणव्रत और शिक्षाव्रत
श्रावक धर्म में गुणव्रत और शिक्षाव्रत अहिंसा की साधना को आगे बढ़ाने के लिए हैं। गुणव्रत तीन हैं
1. दिग्व्रत, 2. देशावकाशिक व्रत, 3. अनर्थदण्ड व्रत।
1. दिग्व्रत-सभी दिशाओं और विदिशाओं का सीमित करना, बढ़ते हुए मन का विरोध करना एवं दिन-प्रतिदिन प्रभातकाल में नियम ग्रहण करना, प्रथम (दिग्व्रत) गुणव्रत है। जो पाप को हरण करने वाला है। अपनी इच्छाओं को सीमित करने के लिए सभी दिशाओं का परिमाण करना दिग्व्रत है। अर्थात् अर्थलोलुपी मानव तृष्णा के वश होकर विभिन्न देशों में परिभ्रमण करता है और विदेशों में व्यापार-संस्थान स्थापित करता है। मनुष्य की इस निरंकुश तृष्णा को नियंत्रित करने हेतु दिग्वत का विधान किया गया है। पूर्वादि दिशाओं में नदी, ग्राम, नगर आदि प्रसिद्ध
1. पासणाहचरिउ, 5/5/4-7 2. वरंगचरिउ, 1/16 3. वही, 1/16 4. वही, 1/16 5. वरंगचरिउ, 1/15 6. वही, 1/16 7. वही, 1/16 8. रइधू पासणाहचरिउ, 5/6/1-2