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________________ 63 वरंगचरिउ प्रबन्ध काव्यों, मुक्तक काव्यों और चरितात्मक, स्तुत्यात्मक तथा रास आदि ग्रंथों में अनेक छन्दों का प्रयोग मिलता है। संस्कृत में वर्णवृत्तों का और अपभ्रंश में मात्रिक छन्दों का प्रयोग अधिक हुआ है, पर वहां वर्ण-वृत्तों का सर्वथा अभाव भी नहीं है। अपभ्रंश कवियों ने संस्कृत के उन्हीं छन्दों को ग्रहण किया है जिसमें उन्हें विशेष प्रकार की गति मिली है और इसी से उन्होंने संस्कृत वर्ण-वृत्तों में अपनी इच्छानुसार कुछ सुधार या परिवर्तन अथवा परिवर्धन कर, उन्हें गान तथा लय के अनुकूल बना लिया है। अपभ्रंश के कवियों ने अन्त्यानुप्रास का प्रयोग प्रत्येक चरण के अन्त में तो किया ही है, किन्तु उसका प्रयोग कहीं-कहीं तथ्यों में भी हुआ है। तुकान्त या तुक का प्रयोग लय को उत्पन्न करना या उसे गति प्रदान करना है और ऐसी शब्द योजना का नाम ही तुक है। प्राकृत कवियों ने प्रायः मात्रिक छन्दों का ही प्रयोग किया है, इनमें तुक का प्रयोग नहीं पाया जाता। हिन्दी के तुलसीदास आदि कवियों की रचनाओं में चौपाई या दोहा छन्द ही आता है, किन्तु अपभ्रंश कवियों की कडवक शैली में सभी वर्ण ओर मात्रिक छन्दों को समाविष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। . पं. परमानन्द शास्त्री के अनुसार-संस्कृत के वर्ण वृत्तों से एक ही छन्द में नवीनता उत्पन्न कर अनेक नूतन छन्दों की अपभ्रंश में सृष्टि भी की है। संस्कृत के मालिनी छन्द में प्रत्येक पंक्ति में 8 और 7 अक्षरों के बाद यति के क्रम से 15 अक्षर होते हैं। उसे अपभ्रंश भाषा के कवि ने प्रत्येक पंक्ति को दो भागों में विभाजित कर यति के स्थान पर तथा पंक्ति की समाप्ति पर अन्त्यानुप्रास का प्रयोग कर छन्द को नवीन रूप में ढाल दिया है। यथा : . विविह रस विसाले, णेय कोऊ . हलाले। ललिय वयण माले, अत्थसंदोह साले। सुदंसणचरिउ, 3-4 ___ अपभ्रंश में दो छन्दों को मिलाकर अनेक नये छन्द भी बनाये गये हैं। जैसे छप्पय, कुंडलिया, चान्द्रायन और वस्तु आदि । छन्दों के प्रकार अपभ्रंश भाषा के काव्यों में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है उनके नाम इस प्रकार है :पज्झटिका, पादाकुलिक, अलिल्लाह, रड्ढा, प्लवंगम, भुजंगप्रयात, कामिनी, तोटक, दोधक, सग्गिणी, घत्ता, दोहा, मन्दाक्रांता, मालिनी, वंसस्थ, आरणाल, तोमर, दुवई, मदनावतार, चन्द्रलेखा, कुवलयमालिनी, मोत्तियदाम, उपजाइ विलासिनी, शालिभंजिका, इन्द्रवजा, वसंततिलका, प्रियंवद, अनंतकोकिला, रथोद्धता, मंदारदाम, आवली, नागकन्या, पृथिवी, विद्युन्माला, अशोकमालिनी और निसेणी आदि। 1. जैनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, परमानन्दशास्त्री, प्रस्तावना, पृ. 34 2. वही, प्रस्तावना, पृ. 34 3. वही, पृ. 34 4. वही, पृ. 35 5. वही, पृ. 35 6. वही, पृ. 35
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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