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वरंगचरित 2. श्लोकशैली-अग्निपुराण और नाट्यशास्त्र में प्रयुक्त। 3. एकनिष्ठशैली-गंगादास और केदारभट्ट द्वारा गृहीत, जिसमें लक्षण उद्धृत छंद में ही
निहित रहता है। 4. मिश्रितशैली-'प्राकृत पैंगलम्' में व्यवहृत शैली, जिसमें अलग छंदों में भी और
कहीं-कहीं उद्धृत छंदों में भी उल्लेख हुआ है।
अपभ्रंश छन्दों के स्रोत दो हैं-एक तो विभिन्न छन्द शास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत अपभ्रंश छन्दों का विश्लेषण और दूसरे अपभ्रंश काव्य में प्रयुक्त छंदों का अनुशीलन।'
अपभ्रंश प्रबन्ध काव्यधारा, सचमुच छन्द की दृष्टि से बहुत अधिक समृद्ध है। यह समृद्धि आकस्मिक नहीं, अपितु परम्परा का विकास है। अपभ्रंश छन्द के बारे में एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि वह व्यक्ति नहीं जाति से सम्बन्ध रखती है।
सामान्यतया अपभ्रंश विद्वानों ने दो प्रकार के अपभ्रंश छन्द स्वीकार किये हैं :(क) प्रबन्धकाव्य परम्परा के छन्द । (ख) चारण तथा मुक्त परम्परा के छन्द ।
अपभ्रंश कवि छन्द के प्रयोग को लेकर बड़े सजग रहे है। लोकभाषा की गतिशीलता को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक भी था। यही कारण है कि उसमें दोनों परम्पराओं के छन्द मिलते हैं। श्री अल्सफोर्ड ने अपभ्रंश छन्द के दो भेद किये हैं-गणप्रधान और मात्रा प्रधान । मात्रा प्रधान के पांच भेद किये हैं
1. चार पाद का लयात्मक छन्द । 2. दोहा आकार के छन्द । 3. केवल लयवाले छन्द । 4. मिश्रित छन्द । 5. घत्ता के आकार के छन्द। इसी प्रकार प्रयोग की दृष्टि से भी भेदों की कल्पना की जा सकती है :(क) मुक्तक रचनाओं में प्रयुक्त होने वाले छन्द । (ख) कड़वक रचना में प्रयुक्त छन्द । (ग) कड़वक आदि के अन्त में प्रयुक्त छन्द ।
अन्ततः कहा जा सकता है कि अपभ्रंश के छन्द प्रायः संगीत प्रधान हैं, वे तालगेय हैं। अपभ्रंश छन्दों में 'यति' प्रायः संगीतात्मक होती है। लोकभाषा के छंदों का अपभ्रंश के छन्दों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। अपभ्रंश में जिन नये छन्दों का अविष्कार हुआ, उन सबकी विशेषता हैपदान्त यमक की अनिवार्यता, जो हिन्दी में तुकबन्दी के नाम से प्रतिष्ठित हुई। अपभ्रंश के 1. अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ. देवेन्द्र कुमार, पृ. 231 2. जम्बूस्वामीचरिउ, छन्दयोजना, पृ. 60 3. जसहरचरिउ, प्रस्तावना, पृ.34