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वरंगचरिउ अर्थात् भगवान् महावीर का भक्त, गुलखेड का निवासी, शुभ आचरण वाला श्री लाडव वर्ग गोत्री, निर्मलयशवाला और काव्यरचनारूपी कसौटी पर कसा हुआ महाकवि देवदत्त था जिसने पद्धडिया छंद में नाना भावों से युक्त वरांगचरित का उद्धार किया तथा काव्यगुणों व रसों से विद्वत्सभा का मनोरंजन करने वाली सुद्दयवीर कथा का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने सरस चच्चरिया शैली में शान्तिनाथ का महान् यशोगान किया तथा जिन भगवान् के चरणों की सेविका अंबादेवी का रास रचा, जिसका जिनभगवान् के चरण-सेवकों द्वारा नृत्याभिनय भी किया जाता है। ऐसे सम्यक्त्वरूपी महद्भार की धुरा को धारण करने वाले और सरस्वती देवी से वरदान प्राप्त करने वाले इस (देवदत्त) कवि को संतुवा (भा) के गर्भ से विनयसम्पन्न वीर नाम का प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र को अस्खलित स्वर अर्थात् अव्यावाध संस्कृत कवि जानकर पिता ने आदेश दिया-लोकप्रिय प्राकृत प्रबंध (शैली) में काव्यरचना करो, अन्य रचना से क्या? ||4|| ___कवि देवदत्त ने-1. वरांगचरित, 2. चच्चरिया शैली में शांतिनाथ का यशोगान (शान्तिनाथ चरित), 3. सुन्दर काव्यशैली में सुद्दयवीरकथा एवं 4. अंबादेवी रास की रचना की थी। दुर्भाग्यतः उक्त चारों रचनाओं का अभी तक कोई पता नहीं लेकिन संभव है कालान्तर में कहीं शास्त्रभण्डारों में प्राप्त हो जावे। पं. परमानंद शास्त्री ने भी अनुपलब्ध रचनाओं में कवि देवदत्त द्वारा रचित वरांगचरिउ का उल्लेख किया है।' वीरकवि ने अपने पिता देवदत्त को कवियों की कोटि में तृतीय स्थान रखा है
संते सयंभुएवे एक्को य कइत्ति बिण्णि पुणु भणिया।
जायम्मि पुप्फयंते तिण्णि तहा देवयत्तम्मि।।1।। अर्थात् कवि कहता है कि स्वयंभूदेव के होने पर एक ही कवि था। पुष्पदंत के होने पर दो हो गये और देवदत्त के होने पर तीन हो गये। . तृतीय वरांगचरित की रचना वर्धमान कवि ने की है, जिसका समय 14वीं शताब्दी माना जाता है। डॉ. उपाध्ये के अनुसार 13वीं शताब्दी तक ग्रंथकारों ने विविध रूप से जटासिंह नन्दि का स्मरण किया, किन्तु इसके बाद उनके बारे में मौन हो जाते हैं। आचार्य के अनुगामियों का शोधक जब कारण की खोज करता है तो उसे ऐसा संस्कृत वरांगचरित मिलता है, जिसे रचयिता स्वयं 'संक्षिप्त सैव वर्ण्यते' कहकर प्रस्तुत करता है अर्थात् कथावस्तु ज्यों की त्यों है। केवल धार्मिक विवेचनों को लघु कर दिया गया है। इसके रचयिता मूलसंघ बलात्कारगण भारतीगच्छ में उत्पन्न वरवादिदन्तिवञ्चानन वर्द्धमान है। डॉ. उपाध्ये के मत से अब तक दो वर्धमान प्रकाश में आये हैं। प्रथम है न्यायदीपिकाकार के धर्मभूषण के गुरु तथा दूसरे हुमच शिलालेख के रचयिता वर्द्धमान। दोनों का समय 13वीं शताब्दी से पहले ले जाना अशक्य है। 1. जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, पृ. 144 2. जम्बूस्वामीचरिउ (5वीं संधी प्रथम श्लोक)