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वरंगचरिउ IV. वरंगचरिउ की परम्परा
चरितकाव्य की परम्परा प्राकृत, संस्कृत एवं अपभ्रंश साहित्य में प्राप्त होती हैं। महाभारत, रामायण आदि ग्रंथों में महापुरुषों के चरित्र वर्णित हैं। अपभ्रंश साहित्य में चरितकाव्य की एक विशिष्ट शैली रही है। चरितकाव्य की परम्परा में वरंगचरिउ की दीर्घ परम्परा प्राप्त होती है, जो निम्न प्रकार द्रष्टव्य है
वरांगचरित की परम्परा में सर्वप्रथम जटासिंह नन्दि के संस्कृत वरांगचरित का उल्लेख मिलता है। इसका समय विद्वानों ने लगभग सातवीं शताब्दी स्वीकार किया है। इसमें राजा वरांग का जीवन वर्णित है। यह विशाल ग्रन्थ 31 सर्गों में विभाजित है। इसे सातवीं शताब्दी स्वीकार करने के पीछे यह कारण है कि इसकी गाथाएँ जिनसेन ने अपने हरिवंश पुराण (ई. 783) में उल्लिखित की है।
उद्योतन सूरि ने कुवलयमाला में (ई. 778) एक गाथा उल्लिखित की है, तथा साथ ही पद्मचरित के कर्ता का भी उल्लेख किया है। वह गाथा इस प्रकार है
जेहिं कए रमणिज्जे वरंग-पउमाण चरिय वित्थारे।
कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो जडिय-रविसेणो।। द्वितीय वरांगचरित' की परम्परा में कवि देवदत्त का नाम प्राप्त होता है जो वीरकवि के पिता थे। इनका समय 10वीं शताब्दी है। जम्बूस्वामी चरिउ में ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है।
इह अत्थि परमजिणपयसरणु, गुलखेडविणिग्गउ सुहचरणु। सिरिलाडवग्गु तहिं विमलजसु कइदेवयत्तु निव्वूढकसु । बहुभावहिं जे वरंगचरिउ, पद्धडियाबंधे उद्धरियउ। कविगुणरसरंजियविउसह वित्थाविय सुद्दयवीरकह। चच्चरियबंधिवि रइउ सरसु, गाइज्जइ संतिउ तारजसु । नच्चिज्जइ जिणपयसेवयहिं किउ रासउ अंबादेवयहिं। सम्मत्तमहाभरधुरधरहो तहो सरसइदेविलद्धवरहो।
नामेण वीरु हुउ विणयजुउ, संतुव गब्भुब्भउ पढमसुउ । घत्ता
अखिलयसर-सक्कयकइ कलिवि आएसिउ पुउ पियरें। पाययपबंधु बल्लहु जणहो विरइज्जउ किं इयरें। 14 ।।
1. हरिवंश पुराण, प्रथम अध्याय, श्लोक 35 2. जम्बूस्वामीचरिउ, वीरकविकृत, सम्पादन विमल प्रकाश जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, 1944, संधि 1/14