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वरंगचरिउ
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डॉ. वसुदेव शरण अग्रवाल 'लोककथाएं और उनका संग्रह कार्य' शीर्षक निबन्ध में लिखते हैं- 'बौद्धों ने प्राचीन जातकों की शैली के अतिरिक्त अवदान नामक नये कथा-साहित्य की रचना की, जिसके कई संग्रह (अवदान शतक दिव्यावदान आदि) उपलब्ध हैं, किन्तु इस क्षेत्र में जैसा कार्य जैन लेखकों ने किया वह विस्तार, विविधता और बहुभाषाओं के माध्यम की दृष्टि से भारतीय साहित्य में अद्वितीय है । विक्रम सम्वत् के आरम्भ से लेकर उन्नसवीं सदी तक जैन - साहित्य में कथा ग्रंथों की अविच्छिन्न धारा पायी जाती है ।' जैनसाहित्य में लोककथाओं का खुलकर स्वागत हुआ। भारतीय लोकमानस पर मध्यकालीन साहित्य की जो छाप अभी तक सुरक्षित है उसमें जैन कहानी साहित्य का पर्याप्त अंश है ।
सदयवच्छ सावलिंग की कहानी का जायसी ने पद्मावत में और उससे भी पहिले अब्दुल रहमान ने संदेशरासक में उल्लेख किया है । यह कहानी विहार से राजस्थान और विंध्यप्रदेश के गांव-गांव में जनता के कंठ - कंठ में बसी है। कितने ही ग्रन्थों में अंकित यह कहानी जैन - साहित्य का भी अंग है । 2
जैनकथाओं को विद्वान् लेखकों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि कई भाषाओं में लिखकर एक ओर भाषा को समृद्धि प्रदान की है तो दूसरी ओर जनता की भावना को भी परिष्कृत किया है। जनपदीय बोलियों में भी जैन लेखकों ने कथासाहित्य को पर्याप्त मात्रा में लिखा है । इन कथाओं में जैन-संस्कृति तथा सभ्यता विविध रूप में मुखरित हुई है । "
डॉ. यादव के मतानुसार कथासाहित्य की दृष्टि से जैन साहित्य बौद्ध साहित्य की अपेक्षा अधिक सफल है। जैन कहानियों में तीर्थंकरों, श्रमणों एवं शलाका-पुरुषों की जीवनगाथाएं मुख्य हैं जिनमें जैन धर्म के सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण होता चलता है। इनमें धार्मिक दृष्टि को पुष्ट करने के लिए जैन कहानीकार साधारण कहानी की समाप्ति कर केवली (मुक्ति के अधिकर्मा साधु) के द्वारा सुख-दुःख की व्याख्या पूर्वजन्म के कर्म के आधार पर कर देता है। प्राचीन कथा साहित्य से तत्त्व ग्रहण कर लेखकों ने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में अनेक कहानियां रची है । अपभ्रंश के पउमचरिउ एवं भविस्सयत्तकहा नामक ग्रन्थ कहानी साहित्य की अमूल्यनिधि है । अपभ्रंश साहित्य में वस्तु, बन्ध और शैली की दृष्टि से प्रबन्धकाव्य की कई विधाएँ लक्षित होती हैं, जिनमें कथाकाव्य भी एक अन्यतम विधा है। अपभ्रंशकथाकाव्यों में नियोजित कथावस्तु लोककथाओं के सांचे में किन्हीं प्रबन्धरूढ़ियों तथ कथाभिप्रायों के साथ वर्णित मिलती है। कुछ कथाएँ जनश्रुति के रूप में प्रचलित होने पर व्रत महात्म्य तथा अनुष्ठानों से सम्बद्ध होकर काव्यबन्ध का अंग ही नहीं, प्राण बन गयी है ।
1. जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 29 2. वही, पृ. 293. वही, पृ. 294. वही, पृ. 305. वही, भूमिका, पृ.6