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वरंगचरिउ
अपभ्रंश में सबसे अधिक है। सभी प्रबन्धकाव्य संधियों में निबद्ध हैं और संधियाँ कड़वकबद्ध हैं । प्रबंध काव्यों की यह विशेष शैली भारतीय साहित्य को अपभ्रंश साहित्य की देन है। लोकजीवन और लोकशैली के विविध रूप अपभ्रंश काव्य में देखे जा सकते हैं। इस युग में पौराणिक महाकाव्य, कथाकोव्य, चरितकाव्य, प्रेमाख्यानककाव्य, खण्डकाव्य, गीतिकाव्य, मुक्तक काव्य आदि काव्य विधाओं में प्रचुर रचनाएँ मिलती हैं। इस काल में जैन मुनियों और कवियों की रचनाएं भी अपभ्रंश में मिलती हैं। सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही अपभ्रंश में रचित सिद्ध साहित्य भी मिलता है। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के शिलालेखों में भी अपभ्रंश की रचनाएं मिलती हैं। महाराज भोज के शिलालेख धार में विद्यमान हैं। भोजकृत 'सरस्वती कण्ठाभरण' में अपभ्रंश के अनेक पद्य प्राप्त होते हैं।
3. मध्योत्तरकाल (1200 ई. से 1700 ई. तक )
यह युग आचार्य हेमचन्द्र से कवि भगवतीदास तक का कहा जा सकता है। इस काल में परिनिष्ठित अपभ्रंश की प्रवृत्ति बलवती रही ।
2. अपभ्रंश के भेद
अपभ्रंश भारतवर्ष के विशाल भूभाग की भाषा रही है। उसमें स्थान भेद से विविधता आ गई। इस ओर अनेक विद्वानों का ध्यान गया था। उन्होंने अपभ्रंश के अनेक भेदों की चर्चा की हैविष्णु धर्मोत्तर पुराण' में देश भेद से अपभ्रंश के अनन्त भेदों की ओर इंगित किया है, रुद्रट ने भी अनेक भेदों की बात कही थी। नमिसाधु के अनुसार अपभ्रंश के तीन भेद माने गये हैं-1. उपनागर, 2. आभीर और 3. ग्राम्य । इन भेदों के मूल में उन्होंने लोकभाषा को माना है। अपभ्रंश के इन तीन भेदों में भरतमुनि और आचार्य दण्डी द्वारा प्रतिपादित अभीरोक्ति या अभीरादिगिरः को भी अपभ्रंश का एक भेद माना है। भरतमुनि के काल में 'हिमवत् सिन्धु सौवीर' में बोली जाने वाली उकार बहुला बोली सुदूर पूर्व मगध तक पहुंचकर मागधी में परिलक्षित हुई। इसे नमि साधु ने भी लक्षित किया था । "अभीरिभाषापभ्रंशस्थाकथिता क्वचिन्मागध्यामपि दृश्यते" (काव्यालंकार 2/13)। प्राकृत लक्षण में अपभ्रंश भाषा का उल्लेख करते हुए उसकी व्याकरणिक प्रवृत्तियों का भी निर्देश किया है-'लोपोऽपभ्रंशेऽधोरेफस्य'' अर्थात् अपभ्रंश में अधोरेफ का लोप नहीं होता है । वाग्भट्ट ने भी “अपभ्रंशस्तुमच्छुद्धं तत्तदेशेषु भाषितम्" कहकर अपभ्रंश देश भेद के कारण अनेक रूपता का उल्लेख किया है।
1. विष्णुधर्मोत्तरपुराण, 3 / 3. 2. भूरि भेदो देश विशेषादपभ्रंशः, रूद्रटकाव्यालंकार, 2/12
3. स चान्यैरूपनागराभीरग्राम्यत्व भेदेन त्रिधोक्तस्तन्निरासार्थयुक्तं, वही 2 / 12 (नमि साधु की टीका )
4. अपभ्रंश भाषा और व्याकरण, पृ. 47, 5. प्राकृत लक्षण, चण्डकृत 3 / 3