________________
वरंगचरिउ 1. आदिकाल (ई. सन् के आस-पास से 550 ई. तक)
यह वह युग है, जिसमें प्राकृत से पृथक् अपभ्रंश का विकास होने लगा। इस युग में अपभ्रंश शब्द एवं भाषा विषयक पतंजलि एवं व्याडि के उल्लेख मिलते हैं। भरतमुनि की 'उकार-बहुला', 'अभीरोक्ति' का उल्लेख मिलता है। भाषा की दृष्टि से डॉ. चटर्जी का कथन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उनका कहना है-ईसा की प्रथम शताब्दी के मध्य में आरम्भ हुई अपभ्रंश भाषा की परम्परा तुर्की, ईरानी विजय के समय भी बराबर चल रही थी। अपभ्रंश की 'उकार बहुला' विशेषता ईसा की तृतीय शताब्दी में ही पश्चिमोत्तरी प्राकृत में दृष्टिगोचर होती है।'
शूद्रक कृत मृच्छकटिक में भी अपभ्रंश के उल्लेख प्राप्त होते हैं, जहां ढक्की को अपभ्रंश का एक रूप ही माना गया है। मृच्छकटिक में माथुर नामक पात्र द्वारा ढक्की का प्रयोग किया गया है। विक्रमोर्वशीय के पद्यों में भी अपभ्रंश का प्रयोग किया गया है। धरसेन द्वितीय के अभिलेख से भी ज्ञात होता है कि अपभ्रंश, भाषा के पद पर प्रतिष्ठित थी। छठी शताब्दी के भामह के उल्लेख से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। वस्तुतः 550 ई. के बाद अपभ्रंश को संस्कृत, प्राकृत की ही भांति काव्य की भाषा मान लिया गया। कहा जा सकता है कि किसी भी बोली को काव्य-भाषा बनने के लिए दो-तीन सौ वर्ष लग सकते हैं और यदि यह मान लिया जाये कि अपभ्रंश जन बोली के रूप में ईस्वी सन् के आस-पास थी तो यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। 2. मध्यकाल (550ई. से 1200ई. तक)
मध्यकाल अपभ्रंश की काव्य-स्वरूप का प्रमुख काल रहा है। इस काल में अपभ्रंश जन बोली से उठकर अपभ्रंश भाषा के पद पर आसीन हुई एवं अपभ्रंश भाषा का सम्यक् विकास हुआ।
यही अपभ्रंश का मध्यकाल पं. राहुल सांस्कृत्यायन ने भी माना है, जो उचित जान पड़ता है। क्योंकि वाणभट्ट ने भाषाकवि ईशान का उल्लेख किया है, जो प्राकृत कवि से भिन्न है। छठी सदी के पूर्व अपभ्रंश काव्य रचने का अनुमान इसलिए भी किया जा सकता है कि भरतमुनि ने विभाषा के रूप में जिन बोलियों का उल्लेख किया है अभिनवगुप्त ने उनकी पुष्टि करते हुए ग्रामीणजनों की बोलियों को अपभ्रंश कहा है। उक्त कथनों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि छठी शताब्दी के लगभग निश्चय रूप से अपभ्रंश भाषा में काव्य रचना होने लगी थी।
इस युग में एक से एक श्रेष्ठ कवि अपनी रचनाओं के द्वारा अपभ्रंश भाषा का श्रृंगार करते रहे। अपभ्रंश में एक ओर लोक जीवन की जीवन्तता थी, ताजगी थी तो दूसरी ओर प्रबन्धोचित अभिजात्य भी। उसे राजदरबारों में भी गौरवपूर्ण पद प्राप्त था। यही युग अपभ्रंश काव्य-रचना में सर्वप्रमुख है। इस काल में अपभ्रंश के अनेक प्रबन्धकाव्य लिखे गये। प्रबन्ध काव्यों की संख्या 1. चटर्जी, डॉ. सुनीति कुमार भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी, पृ. 117 (1957), 2. सांस्कृत्यायन, हिन्दी काव्यधारा, पृ. 472 3. अपभ्रंश भाषा और व्याकरण, पृ. 46