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वरंगचरिउ जिसके उदय से जीव दान की इच्छा रखता हुआ भी दान न कर सके उसे दानान्तराय कर्म कहते हैं। दाणु (दान) 1/17 ___स्व और पर के उपकार के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है। अथवा रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों के प्रदान करने की इच्छा का नाम दान है। दान के चार भेद हैं-आहारदान, औषधिदान, अभयदान और ज्ञानदान। दिगवउ (दिग्व्रत) 1/16
पूर्वादि दिशाओं में नदी, ग्राम, नगर आदि प्रसिद्ध स्थानों की मर्यादा बाँधकर जीवन पर्यन्त उससे बाहर नहीं जाना और उसके भीतर लेन-देन करना दिग्वत कहलाता है। दिसवउ (देशव्रत) 1/16
दिग्व्रत में धारण किये गए विशाल सीमा को दिवस, पक्षादि, घड़ी, घंटा, मिनिट आदि काल की मर्यादा से प्रतिदिन त्याग करना वह देशव्रत है। दुग्गइ (दुर्गति/नरक गति) ___जो प्राणी पापादि में प्रवृत्त होता है, वह दुर्गति का पात्र होता है। अर्थात् पापादि क्रियाओं से प्राप्त होने वाली गति को दुर्गति कहते हैं। दोसअट्ठारह/दोस्सट्ठारह (3/7, 4/15)
अठारह दोषों से अरहंतदेव रहित होते हैं। वह अठारह दोष इस प्रकार है-1. जन्म, 2. बुढ़ापा, 3. प्यास, 4. भूख, 5. आश्चर्य, 6. अरति, 7. दुःख, 8. रोग, 9. शोक, 10. मद (मान), 11. मोह, 12. भय, 13. निद्रा, 14. चिन्ता, 15. स्वेद (पसीना), 16. राग, 17. द्वेष, 18. मरण। धयवड (पंचवर्ण/ध्वजपताका) 1/3
जैन ध्वज पताका में पांच वर्ण होते हैं-हरा, लाल, पीला, सफेद, काला। पंचणमोयारइ (पंचनमस्कार मंत्र) 1/21
जिसमें पांचों परमेष्ठी (अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु) को नमस्कार किया गया है, उसे पंचनमस्कार मंत्र कहते हैं। पंचत्थकाय (पंचास्तिकाय)
छह द्रव्यों में कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय हैं। पंचमगइ (पंचमगति/मोक्ष) 4/22
जहाँ पर सभी कर्मों का अभाव हो जाता है, उसे मोक्ष कहते हैं। घाति कर्म के अभाव पूर्वक अरहंत अवस्था प्राप्त होती है एवं घाति और अघाति दोनों कर्मों के अभाव पूर्वक सिद्ध अवस्था