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वरंगचरिउ
207 है। तुम्हारे बिना कौन मनुष्य मेरा सहारा होगा? तुम्हारे बिना कौन नर शत्रु को दूर भगायेगा? जिन दीक्षा ग्रहण नहीं करो, तुम्हारे बिना मैं धन-दौलत आदि (परिग्रह) का क्या करूंगा? पिताजी के वचनों को सुनकर फिर कहता है
हे देव! मुझे पृथ्वी और राज्य नहीं रुचता है। उस अवसर पर प्रिय माँ से क्षमा मांगकर, पुनः फिर सभी भाइयों से क्षमा की भावना भाकर, पृथ्वीपति (वरांग) अपने पुत्र के लिए राज्य देकर, जीर्ण तिनके की तरह राज्य का परित्याग किया। मुनिराज वरदत्त को नमस्कार कर जिनदीक्षा ग्रहण की। सभी वस्त्र और आभूषण का त्याग करता है। सागरबुद्धि भी संसार से शंकित हुआ
और मंत्री के साथ जिनदीक्षा से शोभित हुआ। राजा की गुणवती पत्नियों को भी अपने चित्त में विरक्ति हुई और जिनदीक्षा लेकर संयमित हुई। अपने गुरु का शिष्य वरांग हुआ और मन, वचन
और काय की शुद्धिपूर्वक जिन-तप करता है, तृण-कंचन में समभाव मानता है, मुनिराज इन्द्रिय सुख का तिरस्कार करते हैं, शत्रु एवं मित्र में समान भाव मन में रखते हैं एवं दुर्धर तप करके शरीर को तपाते हैं।
घत्ता-पर्वत के शिखर पर बैठते हैं, जहाँ निद्रा चली जाती है, ग्रीष्मकाल में ऐसे तप करते हैं। वर्षा में वृक्षों के नीचे दिन व्यतीत करते हैं और आत्मध्यान में लीन होते हैं।
22. मुनि वरांग की तपस्या मुनि वरांग शीतकाल में चौराहे पर योग करते हैं, कभी भी हर्ष और शोक धारण नहीं करते हैं, कुछ समय भयंकर श्मशान (मरघट) की भूमि पर रहते हैं, व्रत विशेष करके माह के अन्त में पारणा करते हैं, उनका परम आत्मा ही एक स्वामी है, दो आशाबंधन (इहलोक और परलोक हित) की गुरुता का नाश करते हैं। मुनिराज तीन प्रकार की शल्य (माया, मिथ्या और निदान) को मल (दोष) मानते हैं, तीनों की बुद्धि रूप अंधकार का सम्यक्त्व रूप सूर्य से नाश करते हैं जिनके द्वारा त्रिरत्न (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र) रूप आभूषण धारण किये जाते हैं। मन, वचन
और काय से दंडित होते हैं, तप से अनिष्ट कषाय का नाश किया जाता है, चतुर्गति का गमन भी रोकते हैं, निरन्तर पंच महाव्रतों में लिप्त रहते हैं एवं पंच आम्रवद्वार (मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग) का अभाव करते है, पांच समितियों का धैर्यता एवं सम्यक् वीरता से पालन करते हैं, पंचम गति (मोक्ष) में जाने की वांछा रखते हैं, निर्मल बुद्धिपूर्वक षट्काय जीवों की दया रखते हैं, मन, वचन और काय की शुद्धि पूर्वक सात प्रकार के भय वर्जित किया करते हैं, आठ प्रकार के मद रूपी वृक्ष को तप रूप अग्नि से जलाते हैं, नवविधि (नौ बाड़ सहित) पूर्वक ब्रह्मचर्य का