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वरंगचरिउ
155 किया है। हाय! विधाता हृदय वज्र के जैसा बना हुआ है, यह छह खंडों का दर्द यहीं पर क्यों गिरा दिया है? हाय! स्वामी के बिना हमारी छत्र-छाया ही नष्ट हो गई है। हे प्रिय रानियों के राजा! तुम कहां गये, कहां गये? .
घत्ता-हमारे लिए तुम आनंदमय क्रीड़ा के सरोवर हो, जिस पर हम हंस की तरह क्रीड़ा करते हैं। क्यों नहीं ग्रहण करते हो (असक्त होते)? क्यों नहीं ग्रहण करते हो?
7. वधुओं का विरह खंडक-कभी उत्तम शरीर को ताड़ित करते थे, कभी सिरों के ऊपर के बाल जमीन पर गिराते थे, कंगन, हार आदि पृथ्वी पर फेंककर सुख का उपभोग करते थे।
अभी यह व्याकुल शरीर भूमि पर पड़ा रहता है, युवराज वरांग का वियोग अग्नि के ताप जैसा है। स्त्रियां नाना प्रकार से बड़ा-बड़ाकर बार-बार चेतन और मूर्छित होती हैं, वहां पर बधुएँ उठती और गिरती हैं। गुणदेवी उनको लेकर अपने नगर (राज्य में) पहुंचती हैं। अंतःपुर में सभी प्रजा विद्यमान है, सभी योद्धा (वीर) मंत्री भले-बुरे या सत्-असत् का ज्ञान कराते हैं। जैसे मुनिराज तप रूप बल से मोह रूपी मल को नष्ट करते हैं अथवा जैसे प्रखर तीन प्रकार की शल्य (माया, मिथ्या एवं निदान) को हनन करते हैं, जैसे मदोन्मत्त हाथी को प्रचण्ड सिंह का पुत्र मारकर खंड-खंड कर देता है। उन परम ऋषि के शरण रूप आधार पाकर के जैसे राजा दुरूह क्रोध को जीतता है, जो वियोग से सुख होने की संभावना करते हैं, जो श्रेष्ठ केवलज्ञान रूप लक्ष्मी का निवास है। जैसे लोगों में सम्यक्त्व रूप प्रकाश प्रगट होता है, जैसे पृथ्वीतल पर धर्मतीर्थ का प्रवर्तन (
निर्माण) होता है, जिसको सेवन करते हुए नर कृतार्थ होते हैं, जो तृण और कंचन में समान भाव रखते हैं, रिपु और मित्र के ऊपर निर्मल स्वभाव रखते हैं। जो वीर (महावीर) अट्ठारह दोषों से रहित हैं, जिन्होंने चतुर्गति रूप समुद्र को पार किया है। वहां धर्मसेन भगवान् के चैत्यालय गये। जैसे शत्रु की सेना को लोगों ने घेर कर मार दिया हो। सभी के द्वारा जिनदेव की प्रतिमा के बिम्ब की वंदना की गई। जैसे चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब का अपना तेज हो (चाँदनी हो)। नाना प्रकार से जय-जय के शब्द किये गये, भव रूप असार मल को हरकर स्तुति की।
घत्ता-पुनः शांतिनाथ जिनदेव की स्तुति करके योग्य श्रेष्ठ ऋषि को परिपालित किया। वह श्रेष्ठ ऋषि रानियों, प्रजापालक और प्रजा (जनपद) के मध्य उपदेश करते हैं।