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वरंगचरिउ
107 है और स्त्री के लिए नर के समान दोष कहे हैं। जो एक-एक व्यसन में चित्त (मन) को प्रवृत्त करते हैं वे काल में कवलित होकर दुःख को प्राप्त करते हैं। फिर जो सातों व्यसनों में रत होते हैं, उसको हजार गुना दुःख कहा है। जिनवाणी में उसे मूलगुण व्रती कहा है जो मद्य, माँस, मधु और पांच उदुम्बर फलों का त्याग करता है और श्रावक के व्रतों को धारण करता है। रात्रि भोजन छोड़ो जो पापराशि रूप है और त्रस-स्थावर जीवों का घर है। जो करुणा रहित होकर रात्रि भोजन करता है, वह दीर्घकाल तक भवसमुद्र में भ्रमण करता है। सभी समय (तीनों समय) जल छानकर पीना चाहिए, उसके पुण्य में अत्यधिक सुख की प्राप्ति होती है। जो भव्य दयावान और पुण्यवान हैं, वे प्रयत्न पूर्वक तुरन्त पानी छानते हैं, विलछानी (जीवानी) का जल वहीं स्थापित करना चाहिए, जहां कुएँ से घड़ा भरा था। आप स्वयं सुकृत कर्म करना चाहते हो तो एक पहर तक पीने योग्य जल रखना चाहिए, गर्म होने पर आठ पहर की मर्यादा होती है, उसके ऊपर असंख्यात जीव उत्पन्न हो जाते हैं, इसके अलावा इससे अधिक समय तक अनंत काय जीव हो जाते हैं। निराग होकर पुष्पभक्षण का भी त्याग करना चाहिए।
- घत्ता-अमर्यादित माखन (दही) का त्याग करके पुण्य उपार्जित करना चाहिए, साथ ही अमर्यादित छाछ का त्याग करना चाहिए। व्यक्ति को नीचे गिरे हुए पदार्थ के सेवन का त्याग करना चाहिए एवं पाप को छोड़कर दृढ़ता से परिपालन करना चाहिए।
16. मर्यादित दुग्ध एवं बारह व्रत का वर्णन गाय के दूध को अग्नि में तपाना चाहिए और दोषों का त्याग करके भोजन करना चाहिए। बारह प्रकार (रिउरिउ) के श्रावक के व्रत हैं, उनका दृढ़ता से श्रावकों को पालन करना चाहिए। प्रथम व्रत है जीवों का अभयदान, जो अनिवृत्ति पूर्वक स्वयं पालन करना चाहिए। यदि जय करने की इच्छा है तो त्रस जीवों की रक्षा करो, साथ ही स्थावर जीवों की भी रक्षा करो। दूसरा व्रत है-असत्य नहीं बोलना चाहिए, हित-मित-प्रिय वचन कहना चाहिए। वसुराजा असत्य के कारण नाश को प्राप्त हुआ। तीसरा व्रत-दूसरों का धन नहीं छीनना चाहिए। दूसरे के द्वारा दी हुई अनुचित पृथ्वी आदि नहीं लेना चाहिए। अपनी पत्नी (स्वस्त्री) से ही मन में संतोष रखना चाहिए। परस्त्री का त्याग तिनके के समान करना चाहिए अथवा ब्रह्मचर्य को धारण करो, अपने आप संसार से पार हो जाओगे। धन-धान्य, दास-दासी एवं रमणीय स्वर्ण आदि का परिग्रह परिमाण करना चाहिए। लोभ भी एक प्रकार की दुष्ट चुभन है, जिससे दंड मिलता है। यह पांच उत्तम अणुव्रत हैं। तीन प्रकार के गुणव्रत-दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदंडव्रत का परिपालन करो। तीनों कालों में सामायिक करना चाहिए, प्रतिदिन छह घड़ी सामायिक करना चाहिए, वह आत्मा का (समभाव) अवलंबन रूप स्वभाव है, अयोग्य रौद्रध्यान को वर्जित करना चाहिए, सामायिक से